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हमारी अच्छाई के हक़दार कौन कौन हैं ये तय करना हमारा काम है क्यूंकि शेर हमें नहीं खाए क्यूंकि हम शाकाहारी हैं, ये तो सही तथ्य नहीं है ना?
हमारी अच्छाई के हक़दार कौन कौन हैं ये तय करना हमारा काम है…शेर हमें नहीं खाए क्यूंकि हम शाकाहारी हैं, ये तो सही तथ्य नहीं है ना?
कहते हैं ज़िन्दगी रेल की तरह है। स्टेशन पर रूकती, मुसाफिर चढ़ते हैं, उतरते हैं, आपस में कुछ रिश्ते बनते हैं, कुछ आँसू दे जाते हैं, कुछ यादें दे जाते हैं, कुछ पाठ पढ़ा जाते हैं, कुछ जीना सीखा जाते हैं। हर सफ़र अपने साथ कुछ लेकर आता है और कुछ देकर जाता है।
हमारी ज़िन्दगी भी कुछ ऐसी ही है। जब छोटे थे तो सोचा करते अपनी मुट्ठी में आसमान ले लेंगे, आँखों में लिए सतरंगी धनुष, जिसमे हर रंग एक दुसरे में समाया होगा। कितनी यादें उस बचपन की एक पोटली में बांधे, उस पोटली को कंधे पर उठाये बढ़ जाते हैं आगे का सफ़र तय करने।
कुछ किस्से बड़े शिकायत लाते हैं। कुंठा और दुःख दे जाते हैं। हर बार दुखी हो पूछ बैठते हैं, ‘हमारे साथ ही ऐसा क्यूँ?’
मसलन, मैं जब मुंबई में नयी नयी आई थी, घर से दूर आने का दुःख हमेशा मन में रहता था। एक तरफ नयी ज़िन्दगी की शुरुआत और दूसरी तरफ नयी जगह। हमारे शहर से बहुत अलग है ये शहर। बिना कहे भी मदद कर लेने का गुण घर से विरासत में मिला था। लोगों से मिलना उन्हें समझना मुझे अच्छा लगता। किसी से बात कर के मन हल्का हो जाता।
धीरे धीरे लोगों के संपर्क में आने लगी। समय का सदुपयोग करने के लिए मैंने नौकरी भी कर ली। मेहनत और चितमन से किया काम सबको पसंद आने लगा। समय बीतता चला गया। तभी मैं एक दूर के रिश्तेदार के संपर्क में आई। स्वभाव से बहुत मधुर थीं और वाचाल भी। बातों बातों में पता लगा उन्हें भी नौकरी की ज़रूरत है। मेरे ऑफिस में जगह खाली होने की खबर लगते ही उन्हें इत्तला कर दिया। किसी की मदद करके जो अनुभूति होती है वो अतुलनीय है। पापा को बचपन से बढ़ चढ़ कर सफल सहयोग करते देखा था।
कुछ दिन बाद परिस्थिति बदलने लगी। ऑफिस में मुझसे सम्बन्धी काम में संशय आने लगे। मेरी शिफ्ट जो कि मेरे समय के अनुकूल रखी गयी थी ताकि मैं पतिदेव के आने से पहले घर जा सकूँ आने वाले महीने में बदल गयी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था ये सब अचानक क्या हो रहा था। मैंने मेरी रिश्तेदार, जो वहाँ एडमिन थीं उनसे पूछा तो उन्होंने किसी भी तरह की जानकारी ना होने का बहाना ले लिया।
कुछ दिन यूँ ही चलता रहा। एक दिन उसी ऑफिस में काम करने वाली दूसरी महिला का फ़ोन आया। उसने मुझे बताया कि वो जो मेरी रिश्तेदार है उन्होंने अपनी चालाकी से उनकी जगह हथिया ली थी। कमीशन का लालच देकर बॉस को अपनी बातों में ले लिया। ऑफिस में मेरी अच्छी छवि उन्हें खटकने लगी। उन्होंने जान बूझकर मेरी शिफ्ट रात वाले स्लॉट में कर दी। मन भारी हो गया, बहुत बुरा लगा और उन पर बहुत गुस्सा भी आया। मन किया उसी समय तुरंत फ़ोन करके उन्हें खरी खोटी सुना दूं। उन्हें हमने हमारी बिल्डिंग में फ्लैट दिलवाया। उन्हें कोई परेशानी ना हो इसकी हर संभव कोशिश की। समय और पैसों से ज्यादा दोस्ती का मान रखा। बदले में क्या मिला? कपट!
समय के साथ साथ पता चला हमारे पुराने साथियों के साथ भी सम्बन्ध मलिन करने में उन्हीं का हाथ है। बहुत साल हो गए उस किस्से को। बात होती है कभी-कभी, बेमन ही सही। लेकिन ज़िन्दगी का ये पन्ना सबक सिखा गया, हर व्यक्ति आपकी मदद के काबिल नहीं होता। आपके विश्वास का पात्र नहीं होता। छीनने वाले की नीयत हमेशा छीनने की ही रहेगी, आपके सदाचार या व्यवहार से उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। अब प्रश्न ये है कि आपको कैसे उसके जाल से बचना है। इसमें हमारा क्या दोष कहने से हम सही साबित नहीं हो जाते। हमारी अच्छाई के हक़दार कौन कौन हैं ये तय करना हमारा काम है। शेर हमें नहीं खाए क्यूंकि हम शाकाहारी हैं, ये तो सही तथ्य नहीं है ना? थोड़ा संभल कर चल लेती हूँ ताकि कम से कम वही ठोकर दुबारा ना लगे। किसी के लिए कुछ करने से पहले इंसान परख लेती हूँ और फिर चल देती हूँ नए सबक सीखने।
सबक की पोटली से एक किस्सा ये है जो मेरे ज़िन्दगी के पन्नों में जुड़ गया है। दुखी नहीं होती।,सोच समझ कर मदद के लिए हाथ बढ़ाती हूँ। अपने कर्म का चक्र सकारात्मक रखती हूँ और बाकी ईश्वर पर छोड़ देती हूँ।
और भी किस्से लेकर आउंगी …ज़िन्दगी के पन्नों से…तब तक विदा।
मूल चित्र : Pexels
Now a days ..Vihaan's Mum...Wanderer at heart,extremely unstable in thoughts,readholic; which has cure only in blogs and books...my pen have words about parenting,women empowerment and wellness..love to delve read more...
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