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पिता के उस पत्र में सिमटा था माँ का सपना

आज अगर पिताजी ने पत्र लिख कर उसे सारी बातों से अवगत नहीं कराया होता, तो वो अपनी मां के सपनों से हमेशा अनजान रहता।

आज अगर पिताजी ने पत्र लिख कर उसे सारी बातों से अवगत नहीं कराया होता, तो वो अपनी मां के सपनों से हमेशा अनजान रहता।

शाम के 5 बज गए, एक एक कर सभी मरीज जा चुके थे। काम की थकान उतारने के लिए डॉ. अभय ने चाय मंगाई। फिर बाकी बचे कामों की जानकारी लेने के लिए, अपनी सहायक मिताली को अपने केबिन में बुलाया।

“हैलो सर, मैं अंदर आ सकती हूं?” मिताली ने पूछा!
“हां!” डॉ. अभय ने इशारे से उत्तर दिया। मिताली और चाय दोनों एक साथ ही आ चुके थे। ना जाने क्यों आज चाय का कप देख डॉ. अभय को गांव की नुक्कड़ पर बैठें, रामू काका की चाय की भरी हुई कुल्हड़ की गरमाहट याद आ रही थी।

चाय की चुस्कियों के साथ, अभय मिताली से सभी कामों की जानकारी लेते जा रहे थे, और साथ ही आवश्यक दिशानिर्देश भी दे रहे थे।उनका अस्पताल शहर का सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल था। सारे काम ख़त्म होने पर डॉ अभय ने जब मिताली को जाने को कहा, तो मिताली ने उनकी तरफ एक नीले रंग का लिफाफा बढ़ा दिया।

फोन की सुविधा होने के बाद भी पिताजी ने उन्हें पत्र क्यों लिखा?

“सर! आपके लिए एक चिट्ठी आई है।” “मेरे लिए!”, डॉ. अभय आश्चर्य से बोले। इस टेलीफोन के जमाने में पत्र किसने लिखा है। अभय ने नाम देखा, तो सुंदर लिखावट में उनके पिता का नाम अंकित था। हाथ में पत्र लिए अभय असमंजस की स्थिति में थे। फोन की सुविधा होने के बाद भी पिताजी ने उन्हें पत्र क्यों लिखा? विचारों से निकल उन्होंने मिताली को जाने को बोला और ख़ुद पत्र पढ़ने लगे।

मां की बीमारी में कोई सुधार नहीं दिख रहा

प्रिय अभय,

शुभाशीष! मुझे पता है तुम इसी उलझन में होगे कि मैंने फोन और विडियो कॉल की सुविधा होने के बावजूद तुम्हें पत्र क्यों लिखा। बेटा, मैं जो तुमसे कहना चाहता हूं। शायद फोन पर नहीं कह पाता। पिता हूं ना! कभी भावनाओं को व्यक्त करना नहीं सीखा। इसीलिए मन की बात बताने के लिए पत्र का सहारा ले रहा हूं। तुम्हारी मां की बीमारी में कोई सुधार नहीं दिख रहा। यहां के डॉक्टर ने उन्हें किसी बड़े अस्पताल में जा कर इलाज करवाने को बोला है। बेटा तुम्हारी मां की जिद्द तो तुम जानते हो। मेरे कितनी बार समझाने पर भी, वो तुम्हारे पास शहर में जाकर इलाज करवाने को राजी नहीं हुईं। तुम्हारी मां ने तो मुझे, तुम्हें कुछ भी बताने से मना किया था। तुम पूछोगे तो आज भी वो यही कहेगी की सब ठीक है।

बेटा, तुम्हारे दादाजी की मृत्यु हार्टअटैक की वजह से हुई थी। गांव से शहर के अस्पताल ले जाने में काफी समय लग गया था। डॉक्टर ने बोला था, अगर वक्त पर उपचार किया जाता तो उनकी जान बचाई जा सकती थी। तेरी उम्र तब 2 साल की थी, तभी तेरी मां ने ठान लिया था कि वो तुझे डॉक्टरी पढ़ाएगी और जब तू डॉक्टर बन जाएगा तो गाव में एक बड़ा अस्पताल खोलेगा। लेकिन बेटा, पढ़ाई पूरी होने से पहले तुम शहर में नौकरी करने का निर्णय ले चुके थे। माँ ने समझाना चाहा, पर तेरी ख़ुशी देख वो चुप हो गई। तुझे कभी भी अपने गांव में अस्पताल खोलने और गांव वालों की सेवा करने के लिए नहीं बोला। ना ही कभी अपने सपने के बारे में बताया। बेटा आज तेरी मां को अच्छे डॉक्टर और सारी सुविधाओं वाले अस्पताल की जरूरत है। हो सके तो अपनी व्यस्त दिनचर्या में से थोड़ा सा समय निकाल कर अपनी मां के पास आ जाओ।
तुम्हारे आने के इंतेजार में,

तुम्हारे माता पिता!

पूरे रास्ते उसके अंदर भावनाओं का सैलाब उमड़ रहा था

पत्र पढ़ कर अभय की आंखें डबडबा गईंं और मन आत्मग्लानि से भर गया। उसने तुरंत ट्रेन की टिकट बुक की फिर मिताली को बता, अस्पताल से सीधा रेलवे स्टेशन की तरफ चल पड़ा। पूरे रास्ते उसके अंदर भावनाओं का सैलाब उमड़ रहा था। आज अगर पिताजी ने पत्र लिख कर उसे सारी बातों से अवगत नहीं कराया होता, तो वो अपनी मां के सपनों से हमेशा अनजान रहता।

ट्रेन की छुक-छुक की आवाज के साथ उसका बचपन, चलचित्र की तरह उसकी आंखों के सामने था। कैसे उसकी मां ने हमेशा उसे प्रोत्साहित किया, उसका मनोबल बढ़ाया। उसे आज भी याद है। मां हमेशा कहती थी, मेहनत से हर सपने पूरे होते हैं। फिर मां ने, उसे क्यों नहीं बताया गांव में अस्पताल खोलने के अपने सपने के बारे में? शायद गलती उसी की थी। शहर की चकाचौंध भरी रोशनी में, वो मां की आंखो का सपना पढ़ ही नहीं पाया। भावनाओं के समंदर में गोते लगाते डॉ. अभय की आँख लग गई।

जब सुबह आँख खुली तो ट्रेन उनके गाँव के स्टेशन पर रुकी हुई थी। अभय को घर की तरफ जाते हुए, गाँव की गलियों में  अपना सुनहरा बचपन दिख रहा था। गांव के नुक्कड़ पर रामू काका अपनी गरम चाय की केतली लिए आ रहे थे। अभय ने झुक कर उनके पाँव छुए, तो झुर्रियों से भरे चेहरे पर मुस्कुराहट खिल उठी। काका ने ढेरों आशीर्वाद से उसकी झोली भर दी। फिर बोले! अरे अभय बेटा, आ गया तू अपने घर!, बड़ी देर लगा दी!

ना जाने क्यों उनकी कही बात अभय को अपनी जिंदगी का सच प्रतीत हो रही थी। उसने मुस्कुरा कर काका को बोला,”हां काका देर तो हो गई है, लेकिन आप सब से वादा करता हूं। अब कभी आप सब को छोड़ कर नहीं जाऊंगा। हमेशा आप के सब के साथ रहूंगा। आप के सुख में, आप के दुख में! सुन कर काका की बूढ़ी आंखें तारों की तरह झिलमिला उठीं।”

अभय तो जैसे काका के सामने अपना अपराध कबूल कर रहा था। अभय को गुमसुम देख काका ने अपनी केतली से चाय का कुल्हड़ भर दिया और बोले,”ले बेटा! पहले काका की कुल्हड़ वाली चाय पी फिर मां से मिलने चले जाना।”

उसकी गरमाहट जैसे उसके अंदर नई उम्मीदों का संचार कर रही थी

अभय ने चाय की कुल्हड़ हाथ में पकड़ी तो उसकी गरमाहट जैसे उसके अंदर नई उम्मीदों का संचार कर रही थी। चाय खत्म कर उसने काका को प्रणाम किया और घर की तरफ चल पड़ा।

घर पहुंचने पर दरवाजा मा ने खोला! उनका चेहरा खुशी से चमक उठा। अभय ने जैसे पैर छुए उन्होंने उसे गले से लगा लिया। अभय की आँखों के आँसू अपना बाँध तोड़ चुके थे। वो मां को पास बिठा कर बोला,” मैं आ गया, मां! आपके सपने को पूरा करने! मां आश्चर्यचकित, हो उसे देख रही थी। अभय ने उनकी गोद में सिर रख आँखें बन्द कर लीं। हाँ मां, मैं वादा करता हूँ। आपका बेटा, डॉ. अभय गांव में एक बड़ा अस्पताल बनवाएगा, किसी को भी अच्छे डॉक्टर से इलाज के लिए शहर जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी!”

पिताजी दरवाजे पर खड़े दोनों मां बेटे को मंत्र मुग्ध हो देख रहे थे

मुझे माफ़ कर दीजिए मां, दौलत और शौहरत की चाह में, मैं असली खुशियों के मायने भूल गया था। भूल गया था कि आपने मुझे डॉक्टर बनाया ताकि मैं लोगों की सेवा कर सकूं। अभय की बातें सुन, मां की आंखो से खुशी के आँसू निकल पड़े। पिताजी दरवाजे पर खड़े दोनों मां बेटे को मंत्र मुग्ध हो देख रहे थे।

मूल चित्र : CANVA

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Khushi Kishore

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