कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
घर के दोनों बच्चे अपने मां, पापा के प्यारे होते हैं, पर करीब वह हो जाता है जो उनका ध्यान रखता है, उनकी सुनता है, उनके सुख दुःख में साथ देता है।
नमन, “तुमने अपनी मां का हाल नहीं पूछा? कितनी तबियत खराब है।” कॉलेज जाते हुए नमन को, उसके पिता मनोज ने आवाज़ दी।
“हां पापा। मैं पूछने गया था कि कोई दवाई ले आऊं।”
“क्या थोड़ी देर उसके पास बैठा नहीं जाता। शाम को भी तो अपने कमरे में ही रहा और सुबह उठते के साथ ही अब कॉलेज जा रहा है। नमन दुःख में तो साथ बैठ जाया कर, तेरी माँ को तसल्ली हो जाएगी।”
“पापा, आप भी ज़रा सी बात को बढ़ा देते हो। आप हो ना यहाँ मम्मी के पास और दीदी भी हैं।” यह कहकर नमन तेज़ कदमों से घर के बाहर निकल गया।
नमन के पिता जानते थे कि मां की बीमारी को लेकर उस में बिल्कुल भी भावुकता नहीं है। वह बस अपनी जिंदगी जीता आया था, खाना खाता और चला जाता। मनोज और सुरेखा ने लाड़ में बिगाड़ दिया था, कभी बचपन में संस्कार नहीं दिए। निम्मी बेटी को रसोई में काम करना, घर में सबका ध्यान रखना आदि सब सिखाया। कम उम्र में बच्ची से बड़ी हो गयी, कहकर सारी ज़िम्मेदारीयाँ सीखा दी गयी थीं।
सुरेखा के बीमार होने पर नमन की बहन सुबह उठ जाती और जल्दी ही नाश्ता – खाना बना कर स्कूल जाती और बीच में एक दिन की छुट्टी भी ले लेती, जिससे मां को पूरी तरह आराम दे सके। यह बात किसी से छुपी नहीं थी कि निम्मी एक बेटी होने का फर्ज़ बखूबी अदा करती थी।
बहुत सारे भावुक बेटे भी होते हैं, पर नमन में ऐसा कुछ भी नहीं था। कुछ सालों के बाद निम्मी की एक अच्छी जगह नौकरी भी लग गयी। एक बहुत अच्छे परिवार से रिश्ता आया और उसी शहर में निम्मी ससुराल चली गई। उसके जाने के बाद जैसे घर सूना हो गया। चहल पहल चली गयी थी। मनोज और मनोज की पत्नी सुरेखा हमेशा निम्मी से बातें करते और उसकी ससुराल का हालचाल पूछते। इधर नमन की भी नौकरी लग गई थी और नमन को कोई घर से ज्यादा मतलब नहीं था। कुछ सालों में उसकी भी शादी हो गई थी और वह शादी के अगले महीने ही पत्नी को लेकर अलग रहने लगा था।
मनोज और सुरेखा ने एक बार भी उसे रोका नहीं क्योंकि उनको पता था कि वो यहाँ रहेगा तो उसके व्यवहार से बहुत सारी बातों में मतभेद पैदा होंगे। उसमें माता-पिता की इज़्ज़त जैसा कुछ भी दिखाई नहीं देता था। बस कभी-कभी शनिवार, इतवार को या तो सुरेखा और मनोज, नमन के घर चले जाते थे और या फिर नमन और उसकी पत्नी थोड़ी देर के लिए आ जाते थे। धीरे-धीरे नमन ने शनिवार, इतवार को भी आना बंद कर दिया।
पर निम्मी का ऐसा कभी नहीं हुआ कि पूरे दिन में एक बार फोन नहीं आया हो या मम्मी पापा की तबियत के बारे में हालचाल ना जाना हो। और जब भी उन दोनों में से कोई भी बीमार होता या कुछ परेशानी होती, तो निम्मी तुरंत अपने पति के साथ या अकेली घर आ जाया करती थी। वह नमन की आदत जानती थी, लेकिन फिर भी उसने कई बार नमन को समझाने की कोशिश की। पर नमन को उन बातों का कोई भी फर्क नहीं पड़ता था।
एक दिन घर मिलने आया और बताया की वो विदेश जा रहा है। कुछ समय बाद वह विदेश चल गया और उसके फोन आने भी बहुत कम हो गए थे।
इधर निम्मी अपने बेटी होने का फर्ज़ पूरा कर रही थी। नमन के दो बच्चे भी हो गए थे और उसने कभी भारत में आना जरूरी नहीं समझा। फोन पर भी वह केवल अपने देश की कमियाँ ही गिनाता जाता और बोलता कि वहां रखा ही क्या है ?
अगर मनोज जी कुछ कहते कि बेटा सब अपने रिश्तेदार, परिवार यहां हैं और हमारे लिए ही आजा, तो कहता, “छोड़िए ना, पापा वहां आकर क्या करना है? यहां पर जो आराम है वह वहां कहां। ये भारत देश से ज्यादा अच्छा है और हमें यहां बहुत अच्छा लग रहा है।”
सुरेखा कहती, “नमन बेटा आजा, आंखे तरस रही है बच्चों को देखने को।”
“आयेगें कभी”, बस इतना जवाब होता।
मनोज जी और सुरेखा से मिलने की उसको ना इच्छा होती और वह कहता कि वीडियो कॉल करने से ही उसे संतुष्टि हो जाती है।
निम्मी का आना जाना लगा रहता। दुःख-सुख में वह तुरंत अपने मायके होती पर वो भी नमन की कमी बहुत महसूस करती थी। पर नमन को बहन, जीजा जी और बच्चों से कोई लगाव नहीं था।
नमन के पिता का रिटायरमेंट था। मनोज ने आने को बोला, नमन ने आने के लिए तुरंत हाँ कर दी। “हाँ पापा, हम सब आएगें फंक्शन में।”
यह जानकर मनोज और सुरेखा खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। बेटे, बहु के आने की खुशी में, मनोज सुरेखा ने खाने का सब सामान निम्मी से पूछ कर ला दिया। उसके बच्चे विदेश मे क्या क्या खाते हैं, क्या नहीं ? वो चाहते थे की कोई कमी ना हो।
नमन उन्हें देखने के लिए भारत आया। उसके बच्चे बिल्कुल भी सबके साथ रह नहीं पा रहे थे। उन्हें यह चाहिए था, वह चाहिए था। उन्हें एक परिवार में रहना बिल्कुल नहीं भी आता था। वो दादा दादी से ना कुछ बात करते, बस अलग-अलग कमरे में फोन से खेलते रहते। निम्मी के बच्चों के साथ बिल्कुल भी नहीं खेलते। निम्मी के बच्चों को कुछ भी खाने को दे दिया जाता। वह चुपचाप खा लेते चाहे उन्हें पसंद होता या नहीं होता। क्योंकि उन्हें परिवार में रहना सिखाया गया था। उधर नमन के बच्चों को बाहर खाने की आदत थी। वह बाहर के हिसाब से ही खाना खाते थे।
नमन और उसकी पत्नी भी मेहमानों की तरह से ही रह रहे थे। निम्मी के साथ थोड़ी मदद तो करती है पर निम्मी को साफ पता चल रहा था कि भाभी को बिल्कुल भी घर में रहने की इच्छा नहीं थी क्योंकि वह शुरू से ही अपने सास-ससुर के साथ नहीं रही। उसको अकेले रहने की आदत पड़ गई थी। निम्मी, उस के साथ बातें करने की कोशिश करती पर वह अपनी विदेशों की बातें ही लेकर बैठी रहती। हमारे यहां ये होता है, हमारे यहां वो होता है। यहां ये नहीं है, वो भी नहीं है।
निम्मी समझ रही थी कि उसका यहां पर रहना बहुत मुश्किल है और वह बहुत ही अनमने मन से यहां रह रही है। निम्मी को अपने भाई में बिल्कुल वो भाई नजर नहीं आ रहा था जो वह चाहती थी। लग रहा था एक बेगाना सा परिवार उसके घर आ गया।
तभी मौका देखकर नमन ने पापा से कहा की, उसे घर लेने के लिए कुछ रूपये की जरूरत है। मनोज जी ने कहा, “इतने नहीं हैं, तेरी माँ के इलाज में खत्म हो गए। कुछ है, वो आगे जरूरत के लिए चाहिए। उम्र हो चली तो कब बीमारी में जरूरत पड़ जाये। पता नहीं।”
नमन ने तुरंत कहा, “ये रिटायरमेंट के जो पैसे हैं, उन्हें दे दीजिए।”
मनोज और सुरेखा चौक गये। बोले, “अच्छा तो तू ये लेने आया है। माता पिता से मिलने की कोई इच्छा नहीं थी। शर्म आती है तुझे बेटा कहने पर। कभी सुख दुख में हाल नहीं पूछा नमन तूने और उम्मीद करता है बुढ़ापे की जो पूँजी है, वो तुझे दे दूँ। जब हमें जरूरत हुई तो कभी नहीं पूछा पापा रुपये चाहिए क्या? आज आया है रूपये लेने।”
नमन और उसकी पत्नी का सर शर्म से झुक गया।
तभी पड़ोस के लोग कुछ नमन की मम्मी का हालचाल जानने के लिए आ गये। और नमन और उसके परिवार को देखकर बहुत खुश हुए। नमन अपने विदेशों की तारीफ ही करता रहा और सब लोगों को यह महसूस हो रहा था कि नमन को विदेश मे रहने का बहुत अहम आ गया है।
तभी मनोज के दोस्त ने कहा, “अरे भाई। अब तो आप खुशी से फूले नहीं समा रहे होंगे। आ गया आपके बुढ़ापे का सहारा। अब तो खुशी खुशी दिन रात बीत रहे होंगे।”
तभी नमन के पापा ने निम्मी को देखकर कहा, “हमारे बुढ़ापे का सहारा तो हमारे साथ ही था। वर्मा जी आपने ध्यान नहीं दिया।”
आंखे आँसुओं से भरी थीं।
“निम्मी ने हमें एक पल भी अकेला नहीं छोड़ा है और उसके बच्चे हमें हर छुट्टियों में उदासी दूर करने आ जाया करते थे। और रोज़ाना शाम को फोन करते थे, तो हमें ऐसा लगा ही नहीं कि निम्मी हमारे घर से गई है। दामाद जी ने भी बेटे होने का पूरा हक अदा किया। कभी भी निम्मी को यहां आने के लिए रोका टोका नहीं। हमसे भी जितना बन पड़ा उतना प्यार दिया दामाद जी को और तो कुछ था नही देने को।”
“उन्होंने कुछ कोशिश भी नहीं की माँगने की और रही बात बुढ़ापे का सहारा…., “किसने कहा कि बेटा ही होता है हमारे बुढ़ापे का सहारा। नमन ने तो महीनों फोन नहीं किया ना बीमारी में आया, ना दूर रहकर चिंता हुई कभी हमारी।”
“केवल हमारी निम्मी ही है और उसे हमारे से कुछ आशाएं नहीं है लेने की।”
नमन का चेहरा एकदम से फीका पड़ गया था उसने कहा ,”पापा यह क्या कह रहे हो ?”
मनोज जी ने कहा, “बेटा, ना तू कभी मेरे सुख में आया, ना कभी तू मेरे दुख में आया। अब तू केवल इसलिए आया है क्योंकि मेरा रिटायरमेंट हो गया है और जो पैसा मिलेंगे उसकी तुझे ज़रूरत है।”
वह यह जान गया था कि अब इस घर में निम्मी ही सब कुछ है। अपने प्यार से उस घर में उसने वो जगह बना ली थी, जो एक बेटे की होनी चाहिए थी। गले लगाते हुए मनोज और सुरेखा बोले, बस यही है हमारे बुढ़ापे का सहारा। सुरेखा मुस्कुराते हुए दोनों के गले लग गयी।
दोस्तो, घर के दोनों बच्चे अपने मां, पापा के प्यारे होते हैं। पर करीब वह हो जाता है जो उनका ध्यान रखता है, उनकी सुनता है, उनके सुख दुःख में साथ देता है। इसलिए आजकल हम ये नहीं कह सकते कि बेटा ही बुढ़ापे का सहारा होता है। आजकल बेटियां भी होती हैं बुढ़ापे का सहारा।
मूल चित्र: Canva
read more...
Please enter your email address