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तेरे हर दर्द को वो अपना दर्द समझ कर जकड़ लेती है खुद को और ढूंढती है तेरी आखों में हर पल उस प्यार को जो आवश्यकताओं से ऊपर हो।
तुम्हारे साथ गुज़ारी उन रातों के उपरांत…वो बाँध लेती है, अपनी साड़ी को बदन से शायद वो बाँध लेती है तेरी हर छुअन को, रख लेती है तेरे हर उस स्पर्श को छुपा कर, जो तूने शायद गुज़ारा था बस वासना की पूर्ति के फलस्वरूप, वो बनाती है जूड़ा और बाँधती है हर रोज़ शादी के उन सत फेरों को जो शायद तूने भी तो लिए होंगे उस रोज।
उसकी माथे की बिंदी बताती है उसके उस अनकहे सर्मपण को, जो तू अक्सर उसकी मजबूरी समझता होगा। वो उठती है हर रोज़ और बुनती है हर एक ख्वाब को जैसे कोई बुनकर बुनता है कालीन पर उन सतरंगी रंगों को…
वो छुपा लेती है हर दर्द को अपने सुर्ख काजल के नीचे, वो बाँधती है पैरों में पायल औऱ खुद को जकड़ लेती है तेरी उन मान-मर्यादाओं को, जो तूने स्त्री होने के नाते लगाई होंगी। वो लगाती है तेरे नाम का सिंदूर, जो बताता है उसका अपार प्रेम तेरे प्रति, पर तू समझ लेता है उसे भी उसका कर्तव्य…
इन सब के बीच वो संभालती है तेरे उन ख्वाबों का बोझ। तेरे हर दर्द को वो अपना दर्द समझ कर जकड़ लेती है खुद को और ढूंढती है तेरी आखों में हर पल उस प्यार को जो आवश्यकताओं से ऊपर हो। पर तुम्हें लगता है कि वो ढूंढ पाती उस प्रेम को नहीं, नहीं हर बार पाती है वो असफलता।
फिर भी वो ना जाने कहाँ से ले आती है इतना प्रेम, जो उसको ढूंढने पर भी मिलता नहीं। वो कहाँ से लाती है उस दर्द को सहते हुए मुस्कुराने का हौंसला? कहाँ से लाती है वो उस अथाह प्रेम को? और कैसे लगाती है हर बार उस प्रेम रूपी सागर के गोते इतने निरर्थक प्रयासों के बाद?
तुम्हारे साथ गुज़ारी उन रातों के उपरांत…
मूल चित्र : Pexels
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