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क्या तुम कर पाओगे उस पावन अग्नि में स्वाहा अपने मर्द होने के अहंकार को?

शादी के बाद एक पत्नी का सवाल अपने पति से, "क्या तुम भी ले जा रहे हो एक 'काठ का पुतला' घुमाने को अपने इशारों पे? क्या तुम मेरा साथ निभाओगे?" 

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शादी के बाद एक पत्नी का सवाल अपने पति से, “क्या तुम भी ले जा रहे हो एक ‘काठ का पुतला’ घुमाने को अपने इशारों पे? क्या तुम मेरा साथ निभाओगे?” 

वो दिन याद है क्या तुम्हें जिस रोज तुमनें मुझे अपना बनाया था? तुम आये थे शेरवानी में और मुझे लाल सुर्ख़ जोड़े में सजाया गया था? तुम जानते हो मैं अंदर ही अंदर कितना सहम रही थी? जैसे-जैसे विवाह की बेला नजदीक आती, मेरे अंदर ही अंदर मिटता वो कौमार्य और उसके साथ मिटती वो अल्हड़ता वो चंचलता।

एक लड़की जो ना चाहते हुए भी बनायी जाएगी एक स्त्री

दम तोड़ती मेरे अंदर एक लड़की जो ना चाहते हुए भी बनायी जाएगी एक स्त्री और फिर शुरू होगा एक कभी ना समाप्त होने वाला सफर। मुझे पसंद था यूँ तो सफर करना, पर ना अब वो मायने होंगे और ना वो साथ होगा। होंगी भी तो बस ज़िम्मेदारियाँ जिससे सबको लगता है कि हमेशा भागती रही हूं मैं।

शायद ये ही नियति हो शादी के बाद एक लड़की की?

तुमसे शादी के वादे ना चाहते हुए भी शायद निभाऊंगी क्योंकि तुम तो ले जा रहे हो ‘एक स्त्री’ को जिसने अभी-अभी मारा है खुद को। शायद ये ही नियति हो एक लड़की की?

पर तुम क्यों नहीं मारते हो खुद के एक मर्द होने के अहंकार को? घर के स्वामी होने के एकाधिकार को? क्यों नहीं करते हो स्वाह उस पावन अग्नि में अपने पुरुषार्थ को जो तुम्हारे घर वालों ने तुम्हें वसीयत स्वरूप दिया होगा?

पर क्या तुम भी ये कभी कर पाओगे?

मैं जानती हूँ मैं सँभालुंगी बहुत से रिश्तों का बोझ। समझूँगी तुम्हारी माँ को अपनी माँ। पर क्या तुम भी ये कभी कर पाओगे? क्या ये ही निश्वार्थ प्रेम तुम लौटा पाओगे मुझे? या तुम ले जा रहे हो एक ‘काठ का पुतला’ घुमाने को अपने इशारों पे?

क्या तुम दे पाओगे उस वक्त मेरा साथ जब ये घर और रिश्तें सब बेगाने से होंगे? तुम दे पाओगे अपना हाथ मेरे लड़खड़ाने पर? या तुम खड़े होगे उस मूक-दर्शक से जो इंतजार करते हैं कहीं ना कहीं घर लौट जाने का? क्या तुम बना पाओगे एक ऐसा घर जिसमें हम पति-पत्नी ना हो कर हो एक दोस्त या फिर तुम भी डालोगे बोझ मुझ पर घरवाली का?

मूल चित्र : Canva 

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