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समाज में एक व्यवसाय के रूप में जब अध्यापन कार्य को जब देखा जाता है तो लिंग भेद करते हुए स्कूल टीचर की नौकरी किसके लिए श्रेष्ठ मानी जाती है?
शिक्षण कार्य में अधिकांश महिला अध्यापक ही क्यों? कभी तो आपके दिमाग में भी ये प्रश्न तो आया ही होगा कि स्कूल टीचर अधिकांश महिला ही क्यों दिखाई देते हैं?
हाँ, अगर आप आंकड़ों की बहस लेकर बैठेंगे तो ये भी सामने आएगा कि कई राज्यों में पुरुष अध्यापकों का प्रतिशत महिला अध्यापकों से अधिक है और कई राज्यों में महिला स्कूल टीचर का प्रतिशत अधिक।
परन्तु हम यहाँ गिनती के अक्कड़-बक्कड़ में नहीं जाना चाहते क्योंकि आप स्वयं ही इमानदारी से सोचें, आसपास नजर घुमाएं तो आपको स्कूलों में ज़्यादातर स्कूल टीचर महिला ही अधिक दिखाई देगें।
चलो इस प्रश्न का उत्तर दें कि समाज में एक व्यवसाय के रूप में स्कूल टीचर के काम को जब देखा जाता है तो लिंग भेद करते हुए ये श्रेष्ठतम, उत्तम नौकरी किसके लिए मानी जाती है?
हाँ, अब बताएँ! हम इसी विषय की बात कर रहे हैं। जैसे कि यह नैतिकता की पृष्ठभूमि से जुड़ा व्यवसाय है तो नैतिकता के आधार पर ही देखा जाए तो किसकी संख्या अधिक देखी जाती है और देखनी पसंद की जाती है? जी हाँ वो है, महिला अध्यापक!
चलो एक उदाहरण लेते हैं। एक लड़की जो पढ़ाई में अच्छी है उच्च शिक्षा प्राप्त करने को तैयार है।तो वो किस कोर्स में प्रवेश ले इसके बारे में अधिकतर कैसे सुझाव आते हैं?
“बेटा , ऐसी पढ़ाई करो जिसमें बहुत साल न खप जाएं, आगे नौकरी ढूंढने, नौकरी करने, वहां की व्यवस्था में समन्वय की समस्याएं कम आएं।” तो कई सीधे-सीधे ही कह देते हैं कि औरतों के लिए जो उत्तम व्यवसाय माना जाता है उसी से संबंधित पढ़ाई करना।
फिर बारी आती है, स्वतंत्र विचारों वाले समर्थ माता-पिता की जो कहते हैं, “बेटा, तेरी मर्जी। सुनो सबकी, बस करो अपनी। पर ध्यान रखना कि उत्तम व्यवसाय को ही चुनना ताकि बाद में छोड़ना न पड़े।”
और बेचारी लड़की वर्तमान, भविष्य की सीमाओं के महाभारत युद्ध में संजय की भांति दिव्य दृष्टि से अपने अंधे मन को रास्ता दिखाने लगती है। और, फिर पानी की बॉटल या पेंसिल बॉक्स पर बनी चांदी की छोटी-छोटी गोलियों की खेल, पहेली जो वो बचपन से खेलती आई थी, उसी तरह के घेरों समाज, परिवार, अपने मन के घेरों में दूसरों के सुझावों के छोटे-छोटे रास्तों में नाचती हुई अपनी मंजिल तक पहुंच जाती है। और फैसला आता है कि वह अध्यापिका बनेगी।
समाज, परिवार इस महाभारत युद्ध में अपने समझदारी से बनाए व्यूह रचना में जीत जाते हैं। लड़की भी इसमें हारती नहीं, जीतती ही है। कम से कम उसे आर्थिक स्वतंत्रता के संग बाकी स्वतंत्रता तो मिल जाएगी। और वो बस प्रश्न चिन्ह नहीं चाहती। इसलिए ये रास्ता सहज ही उसको मंजिल दे देता है।
दूसरी तरफ यह भी देखने में आया है कि जो लड़कियाँ इस बंधी-बंधाई लीक से हट कर कुछ साहसिक करना चाहें तो माता-पिता के घर में तो वो ये शौक के नाम पर पूरा कर लेती हैं, पर शादी के मंडप के पहले ही वहां से विदाई पार्टी का आनंद भरे मन से उठाना पड़ता है। फिर उच्च दर्जे का आलीशान जीवन पर एक कसक-टीस जिसको वो शब्द नहीं दे सकती। तो फिर बंधी-बंधाई लीक पर चलने वाली लड़कियां बहुत समझदार हैं।
शादी के बाद भी परिवार की कितनी ही जिम्मेदारियां जो कि उसके जीवन के सुखद पल हैं, जैसे कि गर्भ धारण, छोटे बच्चों की देखभाल, बुज़ुर्गों का ध्यान, अतिथि और वेतन भी सब बढ़िया चलता है। उनको जीने के लिए जो अनुकूल वातावरण मिलना चाहिए वह इस नौकरी में मिल जाता है। तो और क्या चाहिए?
घर के पुरुष अधिकतर पुरुषों की मानसिकता के जानकार होते हैं जिनकी सोच में यह विश्वास होता है कि इस औरत के लिए नौकरी ज़रूरी नहीं, मजबूरी है या होगी! ऐसी मानसिकता के संताप या दुःख का ग्रहण अध्यापन व्यवस्था के नैतिक, अनुशासित वातावरण में कम ही रहता है। तो फिर B.Ed करो या कोई और शिक्षण संबंधी कोर्स करो और अध्यापक बन जाओ !
नहीं जी! ये अब इतना भी खाली जी का घर नहीं रह गया। I.A.S. स्तर के बहुत सारे पेपर देकर फिर अच्छी जगह पर अध्यापक बन सकते हैं।
तो आज तक औरत को आर्थिक स्वतंत्रता, बाकी स्वतंत्रता, सुरक्षा व्यवस्था, अनुशासन, नियंत्रित वातावरण के कारण इससे अच्छा नौकरी का विकल्प नहीं मिलता।
अब बात करते हैं स्कूल के नजरिए की – वे भी महिला अध्यापकों को लेना अधिक उपयुक्त समझते हैं, क्यों?
तो कई कारण हैं जैसे कि अधिकतर महिलाएं कानूनी जानकारियों को नजरअंदाज कर देती हैं उन्हें रोज के क्रम में काम करते रहना, प्रश्न कम पूछना, अत्यधिक विरोध न करना या झिझकना। अपनी नौकरी को बचाए रखने जैसे धर्म संकट जिसके कई कारण हो सकते हैं जैसे आर्थिक स्वतंत्रता, स्कूल का घर के पास होना, अपने बच्चों का भी उसी स्कूल में पढ़ते होना आदि। जिनके चलते शैक्षणिक संस्थानों को पुरुष अध्यापकों के मुकाबले महिला अध्यापकों से मन मर्जी के शिक्षण कार्य करवाने में कम परेशानी आती है।
फिर ऐसी सोच कि महिलाएं अनुशासित, सहनशील होती हैं, तो नैतिकता, अनुशासन के मंदिर में यह स्त्री सुलभ गुण स्कूल के प्रशासन को चलने नहीं दौड़ाने में कारगर सिद्ध होते हैं। बच्चे भी तो घर में अपनी माँ, दादी, नानी, मौसी, बुआ, दीदी, बहन से अधिक जुड़े हुए होते हैं, तो इसी में से किसी का प्रतिरूप उन्हें महिला अध्यापकों के रूप में मिल जाता है। जिससे बच्चे अपने स्तर पर सुरक्षित और उचित महसूस करते हैं।
छात्राओं को तो महिला अध्यापकों से अधिक लगाव होता है जो कि कई बार उनकी जरूरत या मजबूरी भी हो सकती है। क्योंकि उन बच्चियों के शारीरिक, मानसिक परेशानियों को जितनी जल्दी महिला अध्यापक समझ लेते हैं पुरुष या तो नहीं या बहुत कम।
जैसे अनामिका सुबह की सभा में कसरत गतिविधि में भाग नहीं ले रही थी, तो सर डांटने लगे।मीनाक्षी मैम ने अनामिका की तरफ देखा और अनामिका का इशारा समझ मीनाक्षी मैम ने सर को कहा, “सर कोई बात नहीं मैं पूछ लेती हूँ। बेटा, आप रिसेप्शन एरिया में बैठो।” और ऐसी कई अनकही समस्याएं कई बार आराम से सुलझ जाती हैं। मेरा मानना है कि चाहे लड़के हो या लड़कियाँ उनकी कई परेशानियों का हल महिला अध्यापक अपनी सहनशीलता से उपेक्षित नहीं होने देते। बल्कि उनका स्वागत करते हैं।
तो मायके, ससुराल, अपने बच्चे,अतिथि, स्कूल, समाज सबकी खुशी संतुष्टि के लिए महिला अध्यापक अधिक दिखाई देते हैं। परन्तु सभी लड़कियों, महिलाओं की खुशी, संतुष्टि इसी व्यवसाय में हो ये ज़रूरी नहीं क्योंकि फैसले से खुशी मिलती है और समझौते में खुशी ढूंढनी पड़ती है।
बनी राह पर चलना सुरक्षा के नजरिए से अच्छा है पर फिर हमारी लड़कियाँ नए रास्ते कैसे बनाएंगी? कैसे आने वाली लड़कियाँ केवल सुरक्षा, समाज, परिवार के लिए समझौते नहीं, फैसले ले पाएँगी?
अंत में गुजारिश है कि ये हमारी बच्चियों पर छोड़ दें कि वे क्या बनना चाहती हैं, आप बस उन्हें सभ्य माहौल दें तो वे हर कार्य क्षेत्र में सुरक्षित ही रहेंगी!
मूल चित्र : Canva
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