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अंदर से बिखरी लेकिन बाहर से हमेशा संवरी क्यों नज़र आती हैं कुछ औरतें?

मुझे वो चिड़िया हम औरतों की तरह लगी, अंदर से कितना भी बिखरी हों, मगर बाहर से सवरीं ही नज़र आती हैं। सब कुछ नज़र अंदाज कर के लगी रहती हैं ना?

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मुझे वो चिड़िया हम औरतों की तरह लगी, अंदर से कितना भी बिखरी हों, मगर बाहर से सवरीं ही नज़र आती हैं। सब कुछ नज़र अंदाज कर के लगी रहती हैं ना?

सब्ज़ी खरीदने बाज़ार जाना था। कुछ और सामान भी लाना था। बहुत उत्साहित थी, पति ने अच्छी खासी रकम जो दी थी।

मगर ये उत्साह कुछ अलग ही था। माँ ने राखी के पैसे भेजे थे। सोच रही थी, आते समय एटीएम से वो भी निकाल लूंगी। हम लड़कियों का उत्साह और मायके का लाड़ कहाँ ख़त्म होता है? बस इसी उत्साह में मैं तैयार हुई और निकाल पड़ी।

बाज़ार पहुची तो पता चला कि आज किसी वजह से दुकानें ही नहीं खुली थीं।

‘ओफ्फो! अब क्या करूँ?’ सारा मूड खराब हो गया। अब कुछ दिनों के लिये कुछ नहीं, वैसे भी हम औरतों का रोज निकलना कहाँ हो पाता है?

‘मगर एटीएम से पैसे तो निकाल ही सकती हूँ जो माँ ने भेजे हैं’, यही सोच कर मैंने पैसे निकाले और घर की तरफ चल दी।

अभी घर पहुँचाने ही वाली थी कि सड़क के दूसरी ओर कुछ दिखा मुझे।

‘अरे वाह! कितनी सुन्दर चिड़िया है,, किसी ललचाए बच्चे की तरह मैंने जल्दी में सड़क पार की।
एक आदमी कुछ छोटे-छोटे पिंजरे रखे बैठा था, रंग-बिरंगी सुन्दर चिड़ियाँ।

“बड़ी सुन्दर चिड़िया है भैया”, मैने कहा।

“ले लो बहन जी, बच्चे खुश हो जाएंगे।”

अब उसको क्या बताती? मैं ही किसी बच्चे के जैसे उन चिड़िया को देख रही थी।

“कैसी दी भैया? क्या खाती हैं ये?”

“ले लो बहन जी, पांच सौ का जोड़ा है चिड़िया ओर चिड़ा। दाना भी साथ में दे दूंगा।”

असमंजस में पड़ गयी मैं। औरत हूँ ना! बच्चों जैसा ललचा तो सकती हूँ मगर निर्णय नहीं ले सकती। घर पहुंचते ही पति गुर्राने वाले थे, मुझे पता था। मगर फिर भी लिया मैंने, ‘चिड़िया का जोड़ा’…

दो चिड़ियाँ थीं उसमें चिड़िया नीली थी और चिड़ा हल्का मट्मैला सा।

पता नहीं क्यों चिड़ा का चेहरा पहले पल से ही रौबदार लगा था मुझे।

घर आते ही थक कर लेट जाने वाली मैं एक आध घन्टा यूँ ही बैठी उन कृतियों को देखती रही। बस फिर लग गयी शाम के खाने की तैयारी में।

7:40 बज रहे थे। पति के आने का समय हो रहा था। चिड़ियों का पिंजरा मैंने पीछे अहाते में टांग दिया था। पति सुबह ही जाते थे वहाँ। रात को नहीं जाते थे उधर।

मगर बच्चा मन नहीं माना। डिनर के बाद ले गयी पति का हाथ पकड़ के चिड़िया दिखाने और डांट खाने, “ये क्या है अब? कौन ठग गया तुमको? तुम्हारे हाथ में तो पैसा दे दो, फिर तुममें ओर किसी बच्चे में कोई फर्क नहीं। अब दो दिन बाद तुम ही चिल्लाओगी, ‘कितना शोर करती हैं, कितना गन्दा करती हैं’, बच्ची हो बिल्कुल बच्ची!”

ओफ्फ! उम्म्मीद से कम सुनाया था पति ने।

चिड़ियों को गुड नाईट बोल कर मैं भी सोने आ गयी।

कुछ दिन ऐसे ही बीत गये। वो ही दिनचर्या – चिड़ियों को दाना खाना देते, हँसते-गाते, पति-पत्नी की नोक-झोंक।

एक दिन चिड़िया कुछ ज्यादा ही चिल्ला रही थी। मैंने देखा, चिड़ा-चिड़िया को डरा-डरा कर पूरे पिंजरे मे भगा रहा था। कभी चिड़िया किसी कोने में दुबक जाती, तो कभी ऊपर पिंजरे में पंजों से लटक कर फड़फड़ाती। ना जाने क्यों ना चाहते हुए भी मैंने पिंजरा खोल दिया।

कुछ देर बाद चिड़ा बाहर निकला,और उड़ गया। शायद हमेशा के लिये।

लेकिन, ‘हशश-हश्श’…कई बार बोलने पर भी चिड़िया नहीं उड़ी। वो तो मानो जड़ हो गयी थी। मैंने  उसकी कटोरी में पानी डाला, जो कि उसके फड़फड़ाने से खाली हो गयी थी। मगर उसने पानी पिया तो क्या, देखा भी नहीं। हाँफने से उसकी चोंच खुली की खुली रह गयी थी।

चिड़ा वापस नहीं आया। चिड़िया भी अब ठीक लग रही थी।

सारा काम निबटा कर मैं भी बिस्तर पे आ लेटी और आज की घटना के बारे में  ही सोचती रही। फिर ना जाने कब मेरी आंख लग गयी।

सुबह मैने चिड़िया को दाना-पानी दिया। ना जाने मुझे क्यों लग रहा था कि चिड़ा वापस आएगा। मगर दो-तीन दिन बीत गए चिड़ा नहीं आया।

चिड़िया भी अब ठीक लग रही थी। मुझे तो ऐसा ही लगा था। बिल्कुल हम औरतों की तरह। अंदर से कितना भी बिखरी हों, मगर बाहर से सवरीं ही नज़र आती हैं। सब कुछ नज़र अंदाज कर के लगी रहती हैं ना?

उसके बाद मैंने कई बार पिंजरा खुला छोड़ा कि शायद चिड़िया को भी उड़ना हो, खुले आकाश में। किसी नदी से पानी पीना हो? दूसरी चिड़ियों की मंडली में गपियाना हो? शायद नया साथी ढूंढना हो? मगर चिड़िया उड़ी ही नहीं। उसका चहचहाना कम ज़रूर हुआ था मगर दाना-पानी के समय वो ज़ोर ज़ोर से ची-ची कर के मुझे बुलाती। मैं भी काफी काफी देर तक उसके पास ही बैठी रहती। मैं शायद इस गलत फहमी में थी कि मैं उसका अकेलापन दूर कर रही हूँ।

बहुत बुरा लगता था उसे यूँ अकेला देखना। मगर अब उसको भी आदत हो गयी थी। वो पिंजरा छोड़ना ही नहीं चाहती थी। इतने मन से लायी थी मैं चिड़ियों को कि मेरा मन लगाये रहेंगी। और खुश रहेंगी।

मगर मेरी कई कोशिशों के बाद भी चिड़िया नहीं उड़ी। हम औरतों की तरह, एक बार जब कोई घर अपना लेती हैं ना, तो उसका एक भी तिनका बिखरने नहीं देतीं। कितनी भी बंदिशें हों, मगर रिश्तों के पिंजरे छोड़ना ही नहीं चाहतीं। छोड़ ही नही पातीं।

यही नियती है, और  शायद यही अन्त भी। अधूरा हो गया था मेरा ‘चिड़िया का जोड़ा’…

मूल चित्र : Canva Pro 

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