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गुलज़ार साहब के इस जन्मदिवस पर उन्हें लाखों बधाइयां देते हुए आज हम बात करेंगे उनकी शायरी, उनकी फिल्में और उनके कुछ यादगार स्त्री पात्रों की!
गुलज़ार साहब के बारे में लिखना एक गुस्ताखी के समान लगता है! हाथ कांपते हैं! शब्द लड़खड़ाते हैं! ज़ुबान पे ताला लग जाता है! क्या यह चंद शब्द, उनके अपार व्यक्तित्व को समेट पाएँगे? नहीं!
शब्दों के जादूगर गुलज़ार के सामने यह कहां टिक पाएँगे? गुस्ताखी माफ़ से ही शुरुआत कर मैं यह कदम आगे बढ़ता हूँ।
जीवन के किसी भी संदर्भ में गुलज़ार जी के लिखे बोल आपकी मानसिक परिस्थिति को एक बेहद अनूठे रूप से वर्णन करने में समर्थ होते हैं। मेरी भी मनोदशा कुछ इस समय ऐसी है जो उन्हीं के शब्द बेहतरीन ढंग से बयान कर पाएँगे :
“रुके रुके से कदम रुक के बार बार चले करार लेके तेरे दर से बेक़रार चले…”
किसी भी स्तिथि को इतने आसान लफ़्ज़ों में पिरो कर आपके सामने इतनी सादगी से उड़ेलने का उनका ये अन्दाज़ अद्वितीय है। रोजमर्रा की अनुभूतियों में रूपक और समानता की तकनीक का इस्तेमाल जिस किफ़ायत और प्रभावशाली ढंग से गुलज़ार साहब करते हैं वह शायद अतुलनीय है। हिंदी सिनेमा में शायद वे इस प्रकार के पहले छायावादी कवि हैं।
उनका तेजस्व कविता और एक गीतकार तक ही सीमित ना रह कर एक निर्देशक, पटकथा, उपन्यास और लघु कहानियों के लेखक के रूप में भी उजागर है।
18 अगस्त 1934 को उनका जन्म झेलम जिला के दीना गाँव में हुआ जो अब पाकिस्तान में है। सम्पूर्ण सिंह कालरा से गुलज़ार के रूप में उपनाम लेते हुए वो मुम्बई आए और वहाँ एक मेकेनिक के रूप में काम करते हुए ख़ाली समय में कविताएँ लिखने लगे। 1960 के शुरुआत में उन्होंने लघु कथा और फ़िल्म ‘बंदिनी’ के गीत से इस लम्बे प्रभावशाली दौर में पहला कदम रखा।
प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की रविवार की मीटिंग्स में शैलेंद्र और बिमल राय के आग्रह पर उनका प्रवेश हुआ फ़िल्मों में।
‘हमने देखी है इन आँखों की महकती ख़ुशबू’ उनका पहला वो गाना था जो बेहद सफल हुआ। इस गाने में यकायक ही संवेदनात्मक इंद्रियों के कार्यपरक गुणों का मिश्रण है – ‘देखी है महक!’ और वही शायद उनके अपूर्व अंदाज़ की छाप बन चली और इसीलिए शायद ‘गीला मन शायद बिस्तर के पास पड़ा है’ में भी उनकी अभिव्यक्ति सुनने वालों को भा गयी।
उनकी पहली फ़िल्म ‘मेरे अपने‘ बिल्कुल लीक से हट कर थी और शायद इसी कारणवश सामान्य सफलता भी प्राप्त नहीं कर पाई। इसके उपरांत उनकी कई लोकप्रिय फ़िल्मों ने उन्हें पूरी क्षमता से स्थापित किया। ‘परिचय’, ‘कोशिश‘, ‘आंधी, ‘मौसम’ यह सभी बेहद सुंदर और एकान्तर सिनेमा की प्रतीक हैं।
फ़िल्म ‘मौसम’ में एक वैश्या की कहानी को भी इतनी भावुकता से बयान किया गया है और फ़िल्म’आंधी’ में एक स्त्री को नेता के रूप में दर्शाते हुए उसकी कठोरता और नम्रता का संतुलन भी बखूबी झलकता है।
सुधा और माया फ़िल्म ‘इजाज़त‘ से दो ऐसी औरत हैं जो एक दूसरे को समझती भी हैं मगर बेहद अलग प्रवृति की हैं। सुधा बेहद सुलझी हुई और परिपक्व व्यक्तित्व की होते हुए, अपनी बेहद कोशिशों के बावज़ूद अपने घर और पति से दूर अपनी अलग ज़िंदगी बनाती है और माया एकदम चंचल और बेहिचक होने के साथ उन्मुक्त है।
खूबी इसमें है कि दोनों को ही फ़िल्म में बहुत ही सामान्य रूप से दर्शाया गया है और सही ग़लत के मापदंड से दोनों मुक्त हैं। यह उनके लेखन और निर्देशन का मूल है। साधारण, सहज और ग़ैर आलोचनात्मक।
उनकी प्रसिद्ध फ़िल्म ‘ख़ुशबू’ विख्यात लेखक शरत चंद्र चट्टोपाध्यय के उपन्यास ‘पंडितमशय’ पर आधारित है। इसकी मुख्य पात्रा कुसुम एक बेहद दृढ़ नारी चरित्र है। वह आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान और आत्मीयता तीनों को अपनी ज़िंदगी में प्रस्तुत करती है।
https://www.youtube.com/watch?v=XD9JmSIcRbY
ससुराल वालों का शादी से मना करना, उनका उसके परिवार के प्रति व्यवहार का पश्चाताप ना दिखाना और उसका प्राकृतिक रुझान अपने पती की पहली शादी से हुए बच्चे की ओर, तीनों ही उसके व्यक्तित्व को संतुलित करते हैं और सक्षम बनाते हैं। बेहद सरल और उम्दा चित्रण है ये।
उनकी एक और फ़िल्म ‘नमकीन’ भी नारी प्रधान है जिसमें एक माँ अपनी 3 बेटियों के साथ कड़ा जीवन बसर करती है। इस फ़िल्म के सभी पात्र बहुआयामी हैं। उनकी कठिनाइयाँ, उनकी इच्छाएँ, उनके सपने सभी इतनी सुंदरता से जागरूक होते हैं और हमें उनकी ज़िंदगी का हिस्सा बनाते हैं। यह उनके निर्देशन की ख़ासियत रही है। कोई भी समाजिक परिस्थिति में उनका बयान इतना सच्चा और वास्तविक होता है कि वह हमें निरंतर उसमें समेट लेता है।
उनका निजी अनुभव इसको एक ऐसे सहानुभुतिपूर्वक रूप में प्रस्तुत करता है जो उसकी पीड़ा को और भी मार्मिक बना देती है। ‘रावी पार’ से लेकर ‘Two’ तक सभी लघु कहानी और उपन्यास बेहद उल्लेखनीय हैं। ‘Two’ में एक हिंदू दोस्त अपने मुसलमान दोस्त को बहुत ही सटीकता से यह कहता है कि ‘अब तक हम अंग्रेज़ों के ग़ुलाम थे तो अब तेरे पाकिस्तान में अगर तू मुझ पर राज करेगा तो इसमें क्या बुराई हो सकती है?’ यह सरल सा प्रश्न दिल को इतनी कठोरता से कुरेदता है और पूछता है कि क्यूँ हम अपनों से ही बेगाने हो गए?
उनकी कविताओं का संग्रह भी बेहद दिलचस्प और मार्मिक है और ऐसी कई भावनाओं का बेहद सरल ढंग से संचार करता है।
उनकी एक किताब ‘रात पश्मीने की’ बेहद प्रभावशाली है और ख़ासकर के उनकी एक कविता जो उन्होंने अपनी बेटी बोस्की के नाम लिखी है। वह उनका एक बहुत ही अलग रूप, एक पिता के नाते, दर्शाती है।
नाराज़ है मुझसे बोस्की शायद
जिस्म का एक अंग चुप चुप सा है
सूजे से लगते है पांव
सोच में एक भंवर की आँख है
घूम घूम कर देख रही है
बोस्की,सूरज का टुकड़ा है
मेरे खून में रात और दिन घुलता रहता है
वह क्या जाने,जब वो रूठे
मेरी रगों में खून की गर्दिश मद्धम पड़ने लगती है
एक पिता का अपनी बेटी की ओर जो प्रेम है, वो शायद इतने अनूठे और भावुक ढंग से कम ही पढ़ने में आता है।
संगीन हो या हास्यप्रद, चुलबुला हो या भावमय। उनकी कलम सब तरह की अभिव्यक्ति को रूप दे उसे जीवित कर देती है। यह भी क़ाबिले तारीफ़ है कि वे बच्चों के लिए ‘लकड़ी की काठी‘ भी उतने ही प्रभावशाली ढंग से लिख लेते हैं जितनी ही गहराई के साथ वो हमें ‘ख़ाली हाथ शाम आयी है ख़ाली हाथ जाएगी’ की कल्पना करा पाते हैं। यह असीमित विविधता आश्चर्यजनक है।
भाषाओं का मिश्रण और उनके लहजों की बारीकी भी अतुलनीय है। एक तरफ़ है ‘बीड़ी जलैले जिगर से पिया‘ और दूसरी तरफ़ है, ‘चप्पा चप्पा चरखा चले’।
https://www.youtube.com/watch?v=LysB0v2wKVY
इतनी सुंदरता, बारीकी और संवेदनशीलता उनकी कलम से बहती आ रही है कि इस बात का अंदाज़ा भी लगाना नामुमकिन हो गया है कि इसकी अति कहां है।
‘सीली हवा छू गयी‘ से ‘फिर से आइयो बदरा बिदेसी’ से ‘जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर’ कुछ ऐसे शब्दों का जोड़ हैं जो हमें अचानक ही कहीं और कभी भी उन नज़ारों के समक्ष पहुँचा देते हैं।
और अधिक भावनाओं में न बहते हुए, मैं यही कहना चाहता हूँ कि शब्दों का यह सफ़र उनके साथ चलता रहे, इसी मनोकामना के साथ उन्हें जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएं, आज और हमेशा!
मूल चित्र : Canva Pro
A fashion and lifestyle specialist for the last quarter of a century with various brands e commerce and CSR initiatives. A keen enthusiast of Sarees , social developments and films and art . read more...
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