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अब मेरे पास खोने को बचा ही क्या है…

उसे लगा ये उसकी आज़ादी का फरमान है। किसी भी डर से आजादी, शारीरिक मानसिक प्रताड़नाओं से आज़ादी। यही आज़ादी उसकी सबसे बड़ी मजबूती बनेगी।

उसे लगा ये उसकी आज़ादी का फरमान है। किसी भी डर से आजादी, शारीरिक मानसिक प्रताड़नाओं से आज़ादी। यही आज़ादी उसकी सबसे बड़ी मजबूती बनेगी।

रिपोर्ट पकड़ कर थरथरा सा गया उसका पूरा शरीर। दीवार का सहारा लेकर किसी तरह पास पड़े सोफे पर बैठी और सिर टिका कर आंँखें मूंँद सोचने लगी। एकबार फिर वही यंत्रणा, वही दुर्दशा। बीमारी ना हुई अनचाही अतिथि हो गई, बार बार लौटकर आ जाती है। सब्र, ताकत, हिम्मत, हौसला सब धीरे धीरे जवाब दे रहे।

पिछले पंद्रह सालों में इसने शारीरिक और मानसिक रूप से ही अधमरा नहीं किया,आजीविका छीनी, शौक से विमुख किया और इससे भी जी नहीं भरा तो जीवनसाथी को ही छीन लिया। वही जिसके भरोसे और जिसकी खातिर जिंदा थी,असह्य पीड़ा के क्षणों में जिसकी बातें और स्पर्श मरहम से भी ज्यादा आराम देती थीं, तन को ही नहीं आत्मा को भी। अर्धरात्रि में जब संपूर्ण शरीर में भयंकर ऐंठन होती और पैर हाथ लगता कटकर गिर जाएंगे, उस वक्त वो शख्स अपने नींद चैन को दरकिनार कर उसकी सेवा में तब तक जुटा रहता, जब तक उसे गहरी नींद ना आ जाती।

ऊपरवाले को वो हमेशा इस बात का धन्यवाद देती थी कि असाध्य बीमारी के साथ-साथ उसने उसे ऐसा जीवनसाथी भी तो दिया जो सिर्फ उसकी खातिर जीता है। पर, अचानक उनका छोड़कर चले  जाना हमेशा के लिए! ऊपरवाला करना क्या चाहता है आखिर?

दु:ख पहले कम थे क्या? कैसी परीक्षा ले रहा है उसकी, क्या सोचता है? जब पूजा का अर्थ तक नहीं पता था, उस छोटी उम्र से वो उनका नमन करती आई है। कभी कोई ग़लत काम नहीं किया, किसी का बुरा नहीं चाहा, जितना मिला उसे ही भाग्य मान संतोष करती रही। सारी अच्छाइयों का ये प्रतिफल? माना सच को बहुत परिक्षाओं से गुजरना होता है पर उसकी भी तो सीमा होती होगी ना कहीं?

वो अक्सर कहा करते थे, “सुमन मेरी यही दिली इच्छा है कि तुम स्वाभाविक रूप से इस धरा से जाओ। किसी बीमारी से ग्रसित होकर नहीं।”

वो खुद भी तो ऐसे ही गए। उनको गए साल भी नहीं हुआ कि बीमारी फिर से हाजिर। पर नहीं, बहुत डरी, अब नहीं! वैसे भी अब उसके पास खोने को बचा ही क्या है, बस उनकी अंतिम इच्छा, जिसे वो आखिरी दम तक नहीं खोएगी। चाहे मौत से ही आंँखें क्यों ना मिलानी पड़ें।

ये रिपोर्ट नहीं उसकी आज़ादी का फरमान है। बीमारी के डर से आजादी, मौत के भय से आज़ादी,  शारीरिक मानसिक प्रताड़नाओं से आज़ादी। यही आज़ादी उसकी सबसे बड़ी मजबूती बनेगी। वो सोचते सोचते नाा जानेे किस ताकत से उठ खड़ी हुई।

मिनटों पहले उसके थरथराते पांँव स्तंभ से अड़े महसूस हुए। पर अपनी आजादी की मुस्कान होठों पे सजाए वो चल दी, डाक्टर के चैंबर की तरफ अपनी ईलाज की रूपरेखा तय करने!

मूल चित्र : Vardhan from Getty images Signature, via Canva Pro

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