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डॉ रखमाबाई राऊत हैं कानूनन तलाक लेने वाली पहली भारतीय महिला!

डॉ रखमाबाई राऊत के संघर्षों से ही भारत में शादी की उम्र तय करने और हिंदू विधान में महिलाओं के तलाक अधिकार पर बहस की शुरुआत हुई थी।

डॉ रखमाबाई राऊत के संघर्षों से ही भारत में शादी की उम्र तय करने और हिंदू विधान में महिलाओं के तलाक अधिकार पर बहस की शुरुआत हुई थी।

जब गूगल ने डूडल बनाकर रखमाबाई को जन्मदिवस पर याद किया, तब अचानक से लोगों को उनकी याद आई। डॉ रखमाबाई राऊत को भारत में कानूनन तलाक लेने वाली पहली भारतीय महिला के तौर पर याद किया जाता है। इन्होंने डॉक्टरी की पढ़ाई करके प्रैक्टिस भी किया। अतीत से डॉ रख्माबाई की कहानी पर जमी धूल झार-पोछकर देश के सामने लाने की कोशिश हुई।

मैं इसको इसलिए ज़रूरी समझता हूँ क्योंकि भारत में जब भी तलाक पर बात होती है, तब शाहबानो प्रकरण का उल्लेख सबसे पहले किया जाता है। कोई डॉ रखमाबाई  मामले का ज़िक्र ही नहीं करता कि कैसे इनका यह संघर्ष भारत में शादी की उम्र तय करने का आधार भी बना और हिंदू विधान में महिलाओं के तलाक अधिकार पर बहस की शुरुआत हुई।

व्यक्तिगत रूप से, मैं रखमाबाई राऊत को उस महिला के तौर पर याद करता हूं और आगे भी करना चाहूंगा, जिन्होंने हिंदू महिलाओं के वैवाहिक अधिकार के लिए ना केवल भारतीय समाज की बल्कि अंग्रेज़ों की शक्तिशाली औपनिवेशिक सत्ता को भी हिलाकर रख दिया।

1887 के उस दौर में, जब भले घरों की महिलाएं अदालतों में कदम तक नहीं रखना चाहती थीं, उस वक्त रखमाबाई राऊत का छह महीने के लिए जेल जाने के लिए तैयार हो जाना, अपनी जायदाद को भी दांव पर लगा देना, एक नैतिक प्रतिरोध था, जिसकी कल्पना भी उस समय आसान नहीं थी। 25 साल की उम्र में 1887 के उस दौर में इस तरह का प्रतिरोध उन्होंने किया, जिस वक्त महात्मा गॉंधी की उम्र भी मात्र 18 साल थी और सत्याग्रह जैसे विचारों की भनक भी नहीं थी।

कौन थी डॉ रखमाबाई राऊत?

रखमाबाई राऊत का जन्म 22 नवबंर 1864 को जयंती बाई और जनार्दनजी के यहां हुआ था। छोटी सी आयु में रख्माबाई के पिता का देहांत हो गया। इसके बाद उनकी मां जयंती बाई ने सखाराम अर्जुन नाम के व्यक्ति से दूसरी शादी की जो कि ग्रांड मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर थे।

डॉ रखमाबाई राऊत पर उनके सौतेले पिता का काफी असर पड़ा। चिकित्सा के क्षेत्र में करियर बनाने की प्रेरणा रखमाबाई को अपने सौतले पिता से मिली। सखाराम अर्जुन ने महिला स्वास्थ्य, साफ सफाई और मातृत्व के समय देखरेख पर एक किताब भी लिखी, जिसपर बात करना भी एक टैबू माना जाता है।

उस दौर में बाल विवाह के चलन के कारण इन की शादी मात्र 11 साल की उम्र में दादाजी से तय कर दी गई। वे यह शादी नहीं करना चाहती थीं लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी।

क्या है डॉ रखमाबाई राऊत और उनके पति दादाजी का मामला

रखमाबाई राऊत के पिता सखाराम अर्जुन कम उम्र में महिलाओं के गर्भवती होने के खिलाफ थे, इसलिए उन्होंने शादी के वक्त तय किया था कि दादाजी घर जमाई बनकर ससुराल में रहेंगे और थोड़ी-बहुत पढ़ाई करके किसी ढंग के काम में लग सकेंगे।

दादाजी को ससुराल का अनुशासन रास नहीं आया और वह थोड़े ही दिनों में अपने मामा के साथ रहने लगे। मामा, नारायण धर्माजी, के घर का वातावरण उसके बिल्कुल विपरीत था, जिसमें रख्माबाई रह रहीं थी।

मामा मामूली से ठेकेदार थे। एक मजदूरिन के साथ उनके नाजायज़ संबंध थे और उसको वह अपने ही परिवार के साथ रखने के लिए ले आए थे। रखमाबाई पहली ही रात के बाद अपने घर लौट आई और फैसला कर लिया कि फिर कभी उस घर में नहीं घुसेंगी। शादी के कारण राऊत का स्कूल जाना बंद हो गया था पर घर में नामी-गिरामी लोगों का आना-जाना था जिसका फायदा इन्हें घर बैठकर पढ़ने में मिला।

शादी के बाद रखमाबाई का सहवास पति दादाजी के साथ नहीं हुआ था। दादाजी के आचरण और व्यवहार को देखते हुए रखमाबाई और सखाराम अर्जुन भी किसी ना किसी बहाने दादाजी की सहवास की मांग टालते रहे।

आखिर में अपने मामाजी के शह पर दादाजी ने रखमाबाई के खिलाफ बम्बई हाईकोर्ट में रेस्टीट्यूशन ऑफ कंजुगल राइट्स (वैवाहिक अधिकार की पुन: स्थापना) का मुकदमा दायर कर दिया।

क्या है रखमाबाई राऊत का संघर्ष?

रख्माबाई के खिलाफ उनके पति के मुकदमे में महिलाओं के स्थिति को लेकर एक पूर्वाग्रह छिपा हुआ था। स्पष्ट रूप से दिखने लगा कि एक व्यक्ति के रूप में किसी भी समाज में किसी का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था।

सुनवाई के दौरान उनके पति दादाजी के वकील वीकाजी ने कहा, “पत्नी अपने पति का एक अंग होती है, इसलिए उसे उसके साथ रहना चाहिए।”

जब प्रतिवादी के वकील ने कहा, “आप इस नियम को भावनगर के ठाकुर पर कैसे लागू करेंगे, जिन्होंने राजपूतों की परंपरा के अनुसार एक नहीं चार स्त्रियों से विवाह किया?”

वीकाजी ने कहा, “तो फिर ठाकुर की अस्मिता को चार हिस्सों में विभाजित माना जाएगा।”

हिंदू कानून की इस व्याख्या पर अदालत में अट्टहास हुआ लेकिन जज बेली जैसे लोगों के उस विश्वास को समझना मुश्किल था कि महिलाओं के प्रति उनका नज़रिया बेहतर था, जिसको लेकर अट्टहास हुआ।

जज बेली यह भूल गए कि सबसम्पशन (सन्निवेश) अंग्रेज़ी पारिवारिक जीवन की धुरी हुआ करता था और इसे अंग्रेज़ी कानून में भी मान्यता प्राप्त थी। इस सिद्धान्त के अनुसार वहां भी पत्नी अपने पति का अभिन्न अंग थी, उसे अपने पति के खिलाफ दीवानी अदालत करने का अधिकार नहीं था।

कोर्ट ने डॉ रखमाबाई राऊत के पक्ष में फैसला दिया

इन्होंने जब कोर्ट में कहा कि वे अपने पति के साथ नहीं रहना चाहतीं, तो पूरे देश में अखबारों के माध्यम से हलचल मच गई। कोर्ट ने रख्माबाई के पक्ष में फैसला किया। कोर्ट ने कहा,

“यह मुकदमा वैवाहिक अधिकार की पुन:स्थापना का था। पुन:स्थापना तभी संभव है, जब कोई अधिकार एक बार स्थापित हो चुका हो पर रख्माबाई के साथ विवाह के 11 सालों के दौरान कभी सहवास ना करने की स्थिति में दादाजी का कोई वैवाहिक अधिकार स्थापित नहीं हुआ था। इस मुकदमे में जिस तरह के तथ्य सामने आए और झूठी गवाहियां पेश की गईं, उनको ध्यान में रखते हुए पुन:स्थापना का कोई ऐसा अर्थ विस्तार करने की कोशिश की गई, जिससे मुकदमा डॉ रखमाबाई राऊत के विरुद्ध जाए।”

कोर्ट ने फैसला रखमाबाई के पक्ष में रखा और दादाजी को इस मुकदमे में हुए खर्च की भरपाई करने का आदेश दिया। कोर्ट के इस फैसले ने भारतीय समाज को हिला दिया। समाज सुधारकों ने इसका स्वागत किया तो दूसरी तरफ इस फैसले से भारतीय विवाह और भारतीय परिवार दोनों पर ही कुठारघात हुआ।

एक बार फिर से उनके फैसले के खिलाफ अपील दायर की गई

इस फैसले के बाद फिर से बम्बई हाईकोर्ट में ही फैसले के खिलाफ अपील दायर की गई। मुख्य न्यायाधीश समेत दो जजों की बेंच ने पहले के फैसले की व्याख्या को ठुकरा दिया और नए सिरे से सुनवाई का आदेश दिया।

वह सुनवाई रखमाबाई और दादाजी के आपसी संबंधों और उनको लेकर जो भी परेशानियां-मसलन दादाजी की सेहत, गरीबी या उसका चरित्र-उसके आधार पर होगी, सिद्धांतों के आधार पर नहीं। पर डॉ रखमाबाई राऊत का सारा बचाव सिद्धातों के आधार पर ही था। जब यह मुकदमा फिर सुनवाई के लिए आया तो सीधे-सीधे उन्होंने जज से कह दिया,

“चूंकि यह न्यायालय सिद्धांतों पर विचार नहीं कर सकता है, मुझे अपनी सफाई में कुछ नहीं कहना है। न्यायालय के प्रति पूरे सम्मान के साथ मैं सिर्फ इतना कहना चाहती हूं कि अगर यह फैसला मेरे खिलाफ हुआ तो मैं उस फैसले को नहीं मानूंगी। मैं उस आदमी के पास नहीं जाऊंगी। जो भी ज़्यादा से ज़्यादा सज़ा कानून में इस अवज्ञा के लिए है मैं उसे भोगना पसंद करूंगी।”

इस तरह के मुकदमे में अवज्ञा के लिए सज़ा में छह महीने की जेल या जायदाद का छीन लिया जाना तय था। फैसले का जो होना था सो हुआ पर रखमाबाई राऊत के प्रतिरोध का जादुई असर हुआ। वायरराय ही नहीं पहले फैसले के विरोध में आए बाल गंगाधर तिलक समेत तमाम रूढ़िवादियों ने मामले को आगे ना बढ़ाते हुए समझौता करना तय कर लिया। वे घबरा गए रखमाबाई का जेल जाना हिंदू समाज और संस्कृति के लिए भारी कलंक होगा।

बाद में इन्होंने इंग्लैड से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की

रखमाबाई राऊत के अपने साहस से एक बहुत ही क्रांतिकारी विचार दुनिया के सामने रखा और असंख्य महिलाएं, सुधारवादी लोग उनके समर्थन और सहयोग में सामने आए। हिंदी के अखबारों ने जहां इस मामले को संस्कृति के संकट के तौर पर देखा, अंग्रेज़ी में “टाइम्स ऑफ इंडिया” के संपादक हैनरी कर्वेन ने पक्ष में लेख और संपादकीय भी लिखे।

ब्रिटेन में शायद ही कोई महत्वपूर्ण अखबार या पाक्षिक रहा हो, जिसने रखमाबाई के समर्थन में ना लिखा हो और डॉ रखमाबाई राऊत के पत्र ना छापा हो। उस समय ब्रिटेन में नारी मुक्ति का सवाल उभार पर था इसलिए इन का प्रतिरोध व्यापक संदर्भ में समझा गया और उनके जीवन और संघर्ष पर गंभीर लेख छपे।

मुकदमे से मुक्ति पाकर ये बॉम्बे में कैमा हॉस्पिटल की ब्रिटिश डायरेक्टर एडिथ पीची फिप्सन के सहयोग से लंदन गईं, जहां पहले से ही लोग उनके महत्व से परिचित थे। ब्रिटिश संसद में डॉ रखमाबाई राऊत का नाम गूंजा जब एक सदस्य ने यह सवाल पूछा कि उनको जेल जाने से रोकने के लिए सरकार की तरफ से कुछ किया जा रहा था या नहीं।

इंग्लैड के लंदन स्कूल आंओ मेडिसिन से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की। इस दौरान उन्होंने ग्लासगो, ब्रुसेल्स और एडिनबर्ग का दौरा भी किया। लौटकर डॉ रखमाबाई राऊत ने सूरत के एक अस्पताल में काम करने लगी। इस दौरान उन्होंने महिला और बाल अधिकारों के लिए काफी संघर्ष किया।

एक दिन तार से उनको दादाजी की मृत्यु की खबर मिली। जिस समय डॉ रखमाबाई राऊत इंगलैड में डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही थी, उसी समय दादाजी ने दूसरी शादी कर ली थी। पर दादाजी के मौत का तार पाकर उन्होंने विधवा के वस्त्र धारण कर लिए और ताउम्र उसी तरह रही।

भारतीय इतिहास में डॉ रखमाबाई राऊत की कमोबेश खो चुकी कहानी वैवाहिक जीवन में अपने अधिकारों के संघर्ष और जीवन में सफलता की कहानी है, जिनकी मृत्यु 25 सिंतबर 1955 को आज़ादी के पांच साल बाद बंबई में हुई।

नोट- इस लेख को लिखने के लिए सुधीर चंद्र कि किताब “रख्माबाई: स्त्री अधिकार और कानून” और “गांधी के देश में औरत” से मदद ली गई है।

मूल चित्र : Wikipedia, Google Doodle

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