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सिर्फ ‘बड़े घर की बहु’ मेरी पहचान नहीं…

विदाई के बेला में अपने पापा के गले लग ज़ार ज़ार रोई वो। इतना कि सब के कलेजे काँप गए पर ये तो सिर्फ वो पिता ही समझ रहा था, कि ये आंसू...

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विदाई के बेला में अपने पापा के गले लग ज़ार ज़ार रोई वो। इतना कि सब के कलेजे काँप गए पर ये तो सिर्फ वो पिता ही समझ रहा था, कि ये आंसू…

पीली रंग की सुनहरे गोटों से सजी हुई साड़ी, हाथों में भरी भरी मेहंदी, पैरों में आलता, सिर से पैर तक ससुराल से आये गहनों से लदी, सिर पे मांग टीका और बड़ी सी नथ ने रूपा के रूप को और भी मनमोहक बना दिया था। मंडप में अपने होने वाले पति अनिल के पास रूपा चुपचाप बैठी थी। मंडप के पास घर की चाची-मामी सब विवाह के गीत गा रही थीं और रूपा के भाग्य को सराह रही थीं कि इतने बड़े घर की बहु बनने का सौभाग्य मिला उसे।

जब सिंदूरदान का समय आया, अनिल ने अंगूठी से भर के पीला सिंदूर रूपा की मांग में भर दिया। कुछ सिंदूर छिटक के रूपा के चहरे पे भी गिर गए। इसके साथ ही रूपा ने अनिल को ही अपनी नियति मान लिया, अपने सपनों की आहुति विवाह के पवित्र अग्नि में डाल एक समझौता सा कर लिया इस विवाह के साथ।

विदाई के बेला में अपने पापा के गले लग ज़ार ज़ार रोई रूपा। इतना कि सब के कलेजे काँप गए पर ये तो सिर्फ वो पिता ही समझ रहा था, जो रूपा को विदा कर रहा था कि ये आंसू मायके छूटने के ग़म के थे या उन सपनों के टूटने के थे जो रूपा की आँखों ने देखे थे। काँपती आवाज़ में सिर्फ इतना ही कह पाये रूपा के पापा कि बिटिया माफ़ कर देना।

रोती बिलखती रूपा को बैठा दिया गया उस बड़ी सी गाड़ी में जिसमें अनिल पहले से बैठे थे। पूरे रास्ते चुप थे अनिल, ऐसा कुछ भी नहीं महसूस हो रहा था दोनों को देख कर कि वो एक नये जोड़े हैं। ना ही अनिल ने रूपा का हाथ अपने हाथों में लिया, ना ही उसकी मेहंदी में अपना नाम ढूंढ़ने की कोशिश की और ना ही कोई बात हुई।

ससुराल के बड़े से गेट से गाड़ी अंदर गई, घूंघट की ओट से देखा रूपा ने बहुत बड़ी सी हवेली, इतनी बड़ी कि उसके मायके के घर जैसे दस घर उसमें समा जाएं। फूलों और रोशनी से नहायी दुल्हन की तरह सजी हवेली खुद अपना वैभव बता रही थी। दरवाज़े पे सास ने आरती उतारी, सारे रस्मों रिवाज के बाद रूपा को उसके कमरे में ले जाया गया।

कमरे को देख रूपा दंग थी, ऐसी भव्यता देख बहुत सकुचाहट हो रही थी। तभी एक आईने में अपना अक्स नज़र आया रूपा को, अपने इस सुनहरे रूप को पहली बार देखा था रूपा ने और देखती भी कैसे? साधारण सलवार कुर्ते से आगे की कभी कल्पना ना की।

कॉलेज के वार्षिकोत्सव में देखा था रूपा को दीनदयाल जी ने, जो कि शहर के जाने माने लोगों में से एक और राजनेता थे। रूपा का मधुर गीत और उसकी सादगी दिल को भा गई थी उन्हें, पसंद कर लिया अपने इकलौते बेटे अनिल के लिए। प्रिंसिपल साहब खुद रिश्ता ले कर आये रूपा के घर। रूपा के पापा अशोक जी को तो विश्वास ही नहीं हुआ प्रिंसिपल साहब की बातों पे।

रूपा से पूछा तो उसने साफ मना कर दिया। “नहीं पापा! अभी मुझे पढ़ना है सिविल सर्विस की तैयारी करनी है। आपको तो मेरा सपना पता है फिर भी आप?” बहुत समझाने पर भी जब रूपा नहीं मानी, तब अशोक जी बेमन से खुद गए दीनदयाल जी से मिलने फिर पता नहीं क्या बात हुई उन दोनों में, अशोक जी लग गए वापस से मनाने रूपा को। बिन माँ की बच्ची थी रूपा, उसकी दोनों छोटी बहनें और एक भाई।

“बेटा ऐसा रिश्ता बार-बार नहीं मिलता, अपने इस लाचार बाप का सोच रूपा, बिन माँ की बच्चियाँ हो तुम तीनों, कैसे होगी तुम सब की शादी?”

“आप क्यूँ चिंता करते हैं पापा? मैं कमाऊंगी ना!” जब रूपा ने कहा तो अशोक जी ने कहा “कब कमाओगी… कब होगी सारी जिम्मेदारी पूरी? और समाज क्या कहेगा? और कुछ नहीं तो इन दोनों के बारे में सोच बेटा।”

पिता के कहने पे रूपा ने देखा दोनों बहनें दरवाजे की ओट से इस आशा से रूपा को ताक रही हैं कि बस दीदी हाँ कर दे तो हमारा भी बेड़ा पार हो। आखिर दीनदयाल जी ने वचन जो दिया था पूरे परिवार की जिम्मेदारी उठाने का।

माँ होती तो ज़िद भी करती रूपा, पर उस पिता से क्या बहस करती रूपा? जो ना चाहते हुए भी स्वार्थ में घिर गया था। बस एक गाय के समान हाँक दी गई रूपा मायके से ससुराल की ओर, तभी एक आहट सुन कोने में खड़ी हो गई, देखा तो अनिल आये थे।

आते ही बिना किसी औपचारिकता के साफ शब्दों में अनिल ने बात शुरू की, “देखिये रूपा, आपको इस घर में रूपये पैसे नौकर चाकर किसी बात की कोई तकलीफ नहीं होगी, लेकिन मुझसे कोई उम्मीद ना रखना आप। मैं पहले से शादीशुदा हूँ, मेरी पत्नी विदेशी है, तो मेरे परिवार ने उसे स्वीकार नहीं किया और राजनीती में अपना रसूख कम ना हो इसलिए आपसे शादी करने को मुझे मजबूर किया गया।”

अनिल की बात सुन रूपा के पैरों के नीचे से जमीन हिल गई। दो दो बार छल हुआ था उसके साथ पहले, पिता ने बहनों का वास्ता दे छला और अब पति और ससुराल वाले समाज का वास्ता दे छल रहे थे। अपने सारे सपनों को क़ुर्बान कर दिया था रूपा ने, उसका किसी को कोई महत्व नहीं था। सिर घूमने लगा रूपा का वही सोफे पे बैठ गई, सारी रात निकल गई सोचते सोचते और सुबह की पहली किरण के साथ एक निर्णय भी ले लिया रूपा ने।

सुबह होते ही एक साधरण सी साड़ी में कमरे से निकली रूपा, रिश्तेदारों से भरे घर में सब दंग रह गए रूपा को इस तरह देख। जब सास ने तैयार होकर आने को कहा तो सबके सामने रूपा ने अपना निर्णय सुना दिया, “मैं जा रही हूँ इस घर से हमेशा के लिए, इस बड़े घर की बहु बन नहीं गुजार सकती अपना जीवन।

अब मैं फिर से नहीं छली जाऊंगी इस समाज इस परिवार से, जब किसी को मेरी फ़िक्र नहीं तो मैं क्यूँ दूँ अपने सपनों की आहुति? एक पत्नी बन के भी ज़िन्दगी गुज़ार सकती थी, पर आपने तो वो भी हक़ देने से मना कर दिया। इस बड़े घर की बहु बन अपने सपनों की आहुति देने से तो बेहतर है अब मैं अपना भविष्य खुद बनाऊं।”

रूपा को रोकने दीनदयाल जी आगे बढ़े, पर अनिल ने उन्हें रोक दिया। कहीं न कहीं अनिल को भी एहसास था उस अन्याय का जो रूपा के साथ किया गया था। आज रूपा आजाद थी, अपने सपनों को जीने के लिए। अपनी खुशियों के मायने तलाशने निकल पड़ी रूपा, उस सिंदूर और मंगलसूत्र की कैद से आज़ाद हो, फिर से खुले आसमान को नापने।

मूल चित्र : DreamLens  Production via Pexels, edited on Canva Pro

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