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एक बार तो तुमने नज़रें भी मिलायीं, चाहत को यकीन हो गया, उन्हें हमसे प्यार है पर बहुत भीतरघुन्ना है तुम्हारा प्यार, खुलकर कुछ बोलता ही नहीं।
आजकल एक बेचैनी सी रहती है, खलिश उठी है दिल में, कुछ समय से यही कैफियत, सुर्ख ठण्ड का मौसम है, लिहाफ और तुम्हारी बातें मुझे ढके रखती हैं।
मेरी तनहा सासें रात का काश मारती हैं, गरम चांदनी मुँह से भाप बनके निकलती हैं। धीमी आंच पे सुलगते जज़्बात, ठंडी स्याह सी रातों में, तुरंत चाशनी सी जम जाते हैं।
मैं अनकही अनसुनी बातों सी अधीर, ख्वाइशों का तकिया तान कर, प्यार का रिसाव रोकती हूँ। कुछ समय कटता है, कुछ नहीं भी कटता, उलझनें चादर की सिलवटों की तरह, परत दर परत खुद ही उभरती चली जाती हैं।
रात का पहरा, तुम्हारी बातों सा गहराता जाता है, गुलाबी प्यार तुम्हारा रातरानी की खूशबूएं लिए, मेरे भीतर सर उठाता है। कमरा महकने लगता है।
यूँ तो मैं अकेली हूँ बिस्तर पे, पर तुम्हारे होने का सजग एहसास, तुम्हारा अक्स, मुझे घने कोहरे सा लपेट लेता है। और मैं अलसाई अनमनी सी, भीनी सी शर्माहट में, सो जाती हूँ।
तुम पायदान में पैर साफ़ करके, सपनों की अटारी में उतर आते हो। मेरे टुकड़े समेत के, मुझमे वापस जड़ देते हो, और जो नज़्म छेड़ते हो, सच कहती हूँ, चाँद और तेज़ जलने लगता है। इतना कि अंग जला दे, पर फरबरी की ठण्ड बीच-बचाव कर लेती है।
तुम्हारे तसव्वुर में तल्लीन, रात के पहर बीत ही जाते हैं। सवेरे की आस में, उषा नयी कोपलों में प्रस्फुटित होती, प्रज्वलन्त जलती है।
ठण्ड का आलसी कोहरा, होले से डबडबाता है। ओस में एक तिश्नगी, मेरी आँखों में उतर आती है।
सुबह का नूर जो मेरे चेहरे से पिघलता है, फिर तुमसे मिलकर, तुम्हारी रुहांगी में जमता है। मैं मैजंटा रंग की शाल ओढ़े, हरसिंगार इत्र सी पसरती हूँ। तुम मुलायम आँखों से बोलते हो, मैं दिल का भेद टटोलती हूँ। तुम धूप जैसे चमकीले, मेरी आँखें चौंधियाती हैं।
तुम्हारी तहरीर हर्फ़-दर-हर्फ़ मुझमे कुछ उकेरती है, कहाँ से लाते हो इतनी तन्मयता, इतना आकर्षण, मैं निहारती हूँ, जमाती हूँ इस पल को, अपने अंतर्मन में।
रात के सन्नाटे में खर्च करूंगी, तुम्हारे भावों का विश्लेषण करूंगी, एक बार तो तुमने नज़रें भी मिलायीं, चाहत को यकीन हो गया, उन्हें हमसे प्यार है।
पर बहुत भीतरघुन्ना है तुम्हारा प्यार, खुलकर कुछ बोलता ही नहीं, जानते हो, एक यादों का, तुम्हारी मखमली बातों का, मर्तबान है, रस से सराबोर। उसको सहेज के रखा है, मीठी सी इबादत के लिए, तावीज़ बना के रखा है।
ख्वाइशों की बदपरहेज़ी है, तुमसे ही छुपाकर तुमको दिल में सजाती हूँ, बहरहाल, कश्मकश के झालर झूमते हैं, शाम की पुरवाई सोंधी खुशबू छेड़ती है। कुछ समय कटता है, कुछ नहीं भी कटता, डूबते सूरज का आलता बादलों को रंगता है।
मैं बंदिशों की बोली बोलते हुए, गोधुली सी घुलती जाती हूँ, और तुम्हारे प्रतिबिम्ब में, तुम्हारी मनोव्रीति में ढलती जाती हूँ।
ये क्या सुगबुगाहट है, भीनी सी गुदगुदाहट है, पलकें कांपती हैं, सम्बल तलाशती हुई, फिर ये सुरमई शाम कतरा कतरा पिघलती है। तुम्हारे ही मंज़र में, मैं बेतरतीब टहलती हूँ, अलसाई मुरझाई सी।
रात का आलिंगन, फिर मुझे जकड रहा है, सुर्ख ठण्ड के मौसम में, आजकल एक बेचैनी सी, खलिश उठी है दिल में।
मूल चित्र : Krishna Studio via Pexels
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