कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

क्या पुलेला गोपीचंद के बिना साइना नेहवाल की बायोपिक पूरी हो सकती है?

साइना नेहवाल की इस बायोपिक फ़िल्म में अमोल गुप्ते ने भावुकता पर इतना फोकस किया है कि उसमें उनका वर्ल्ड चैपियन बनने का संघर्ष खो गया है।

साइना नेहवाल की इस बायोपिक फ़िल्म में अमोल गुप्ते ने भावुकता पर इतना फोकस किया है कि उसमें उनका वर्ल्ड चैपियन बनने का संघर्ष खो गया है।

पूरी दुनिया में महिलाओं के साथ एक जुड़ा हुआ सच यह है कि उनको सिर्फ स्वयं को साबित ही नहीं करना पड़ता है, बल्कि उन्हें मिसाल भी बनना पड़ता है। उसके इस संघर्ष में कितने ही लोग उसके साथ खड़े होते चले जाते हैं, तब कहीं जाकर वह न केवल अपने लिए नया इतिहास लिखती है बल्कि और कितनों के लिए नई इबारत लिखने का दरवाजा खोल भी देती है।

साइना नेहवाल की बायोपिक सुनाने की कोशिश करने वाले निर्देशक अमोल गुप्ते ने भी यही किया है। साइना की कहानी सुनाने में उन्होंने भावुकता पर इतना अधिक फोकस कर दिया है कि उसमें साइना का वर्ल्ड चैपियन बनने का संघर्ष खो गया है। जबकि उसका होना ही कहानी का सबसे जरूरी हिस्सा था।

बायोपिक फ़िल्म साइना की कहानी क्या है?

साइना की कहानी केवल बेडमिटन कोर्ट में तेज स्मैस या गिरते हुए शटर ही या न्यूज में साइना या साइना के खेल को लेकर आलोचना नहीं हो सकती है।

साइना की कहानी एक मां के विश्वास की कहानी जो स्वयं जिला स्तर की खिलाड़ी रहकर नहीं कर सकी। एक डाक्टर पिता भी है जो बैडमिटन के खिलाड़ी रह चुके हैं। दोनों एक ही हसरत पाले हुए हैं। एक बड़ी बेटी भी है पर न ही उसके नाम का कोई जिक्र है न ही उसके बारे में कोई फ़िक्र।

मां-पिताजी दोनों साइना के साथ मेहनत करते है। मां बेटी को इसलिए थप्पड़ मार देती है क्योंकि वह रनरअप होने से खुश नहीं होती है। मां साइना को हर मैच के पहले दूध पिलाती है और समझाती है, रास्ते पर चलना और बात है और रास्ता बनाना और बात।

डाक्टर पिताजी साइना के लिए मंहगे शटर की कमी खलने नहीं देते हैं। बेटी शॉट लगाती है और दोनों तालियां बजाने लगते हैं। उसके बाद पूरी फिल्म में यही दिखता है।

लेकिन, साइना के हारने के बाद जनता की तरह बेटी के खेल पर अंगुलिया उठाने लगते हैं। लंबी कशमकश के बाद साइना को कामयाब हो जाती है। इन्ही सब चीजों को जोड़कर अमोल गुप्ते ने साइना की कहानी सुनाई है, जिसमें कई झोल हैं।

साइना के पूरे सफर को सजाने में पुलेला गोपीचंद का बहुत बड़ा हाथ रहा है उनका पूरी तरह से बायोपिक से गायब रहना थोड़ा अखरता है। साइना और गोपीचंद के बीच का मानसिक संघर्ष कहानी का बहुत बड़ा टर्निग पॉइंट हो सकता था पर वह सिरे से ही गायब है, जो पूरे बायोपिक को ही संदिग्ध बना देता है। इसके कारण कहानी में कुछ प्रसंग जान-बूझकर ठूंसे हुए दिखते हैं।

इसके साथ-साथ पूरी कहानी कई चीजों से लड़ती-भिड़ती हुई नहीं, उससे कन्नी काटती हुई दिखती है। मसलन-खिड़ालियों का विज्ञापनों में काम करना उनकी आमदनी का जरिया है, पर वह बहुत हद तक उनके खेल को भी प्रभावित करता है। सभी जानते हैं कि हर खिलाड़ियों की गेमिग एज काफी छोटी होती है, जिसमें कई सारी चीजों पर उसको फोकस रहने की ज़रूरत है।

यह हर खिलाड़ी का कभी खत्म नहीं होने वाला संघर्ष है, जिससे हर खिलाड़ी जुझता है। इन चीज़ों  के साथ साइना का पूरा कैरियर जूझता रहा है, पर वह कहानी में कहीं नहीं दिखता है। इसलिए पूरी  कहानी साइना के जीवन में संघर्षों के द्वव्दों को नहीं उभरती है, इसलिए, मेरे अनुसार, इसे बायोपिक नहीं कहा जा सकता है।

परिणीति ने काफी दम लगाया है

साइना नेहवाल को गढ़ने में परिणीति चोपड़ा और बाल साइना का किरदार कर रही निशा कौर ने केवल दम ही नहीं लगाया है अच्छी अदाकारी भी की है। कोच के रूप में मानव कौल भी ठीक-ठाक है उनके किरदार और बेहतर तरीके से रचा जा सकता था। बाकि अन्य कलाकार बिल्कुल ही प्रभावित नहीं करते है। साइना के मां-पिता के संघर्षों को दिखाने का मकसद मध्यवर्गीय परिवार के संघर्ष को दिखाना है पर यह चीज़ें कनेक्ट नहीं हो पाती हैं।

अमोल गुप्ते ने पटकथा इतनी ढीली रखी है और रिसर्च भी इतना कमजोर रखी है, जिसके कारण, पूरी कहानी बायोपिक के दायरे से बाहर चली जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये फिल्म साइना के जीवन के उतार-चढ़ाव को अच्छे तरीके बयां करती है।

कहानी थियेटर से बीच में उठने को मजबूर नहीं करती है लेकिन भरसक कोशिश की गई है कि कहानी देशभक्ति के रंग में रंगी दिखे। लेकिन इन तमाम कोशिशों के बाद साइना नेहवाल के जीवन-संघर्ष से प्रेरणा लेने के लिए बनाई गई साइना नेहवाल की बायोपिक फ़िल्म साइना मनोरंजन तो करती है, पर छाप नहीं छोड़ पाती है।

ऑथर प्रशांत प्रत्युष और पॉप कल्चर से जुड़े और लेख पढ़ने लिए यहां क्लिक करें 

मूल चित्र : Still from film trailer, YouTube  

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

240 Posts | 736,148 Views
All Categories