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महिलाएं किताबें पढ़ती कम और उन्हें जीती ज़्यादा हैं…

जब यह बात मैंने अपने कुछ महिला साथियों से पूछी, तो उन्होंने मिली-जुली प्रतिक्रिया दी, जिसको वाक्य में समेटने का प्रयास मैंने किया है...

जब यह बात मैंने अपने कुछ महिला साथियों से पूछी, तो उन्होंने मिली-जुली प्रतिक्रिया दी, जिसको वाक्य में समेटने का प्रयास मैंने किया है…

किसी उपन्यास, कहानी, नाटक, व्यंग्य या शोध के किताबों से गुजरते हुए, कभी-कभी यह सवाल बार-बार मेरे ज़हन में उठा-पटक मचाता है कि “किताब सरीखे जिंदगी जीने वाली महिलाओं के लिए जीवन में किताबों का क्या महत्व होता होगा?”

इतना तो अब तक मेरा अनुभव यह जान चुका है कि महिलाओं के आंखे, पुरुषों से ज्यादा प्रकार के रंग देखने की क्षमता रखती हैं। अपने जीवन अनुभवों के सामने किसी महिला के सामने किताबों के पन्ने क्या ही संवाद करते होंगे?

क्या वह किताबों में अपने जीवन के यथार्थ का विवरण वहां तलाश करती है? या फिर किताबों में दर्ज जीवन अनुभव से अपने जीवन के कश्ती को किनारे तक पहुंचाने का फार्मूला खोजती है?

जब यह सवाल मैंने अपने कुछ महिला साथियों से पूछा, तो उन्होंने मिली-जुली प्रतिक्रिया दी, जिसको वाक्य में समेटने का प्रयास कंरू तो वह यह है –

“मौसम बदले न बदले हम उम्मीद की एक खिड़की हमेशा खोल कर रखती हैं, इसलिए या तो अपने अनुभवों या जीवन संघर्ष को किताबों में दर्ज कर देते हैं या जिन्होंने अपने जीवन अनुभवों को किताबों में दर्ज किया है उनसे जीवन जीने का फार्मूला सीख लेती हैं।

भावी पीढ़ी के लिए अपने अनुभव हम दर्ज भी करती हैं और हमसे पहले जिन्होंने अपने अनुभव दर्ज किये हैं उनसे सीख भी लेती हैं। कहीं न कहीं हम एक ही जमीन पर खड़ी हैं न।”

कुछ ने कहा, “किताबें हमारे जीवन में आईना के तरह होती हैं जो हमारी सुंदरता और सामाजिक कुरुपता को एक साथ दिखा देती हैं।”

पहली भारतीय महिला किताब

जोहान्स गुटेनबर्ग ने भले ही छापखाने का आविष्कार 1490 में ही कर लिया था, 1557 में गोवा में कुछ इसाई पादरियों ने भारत में पहली किताब छापी। वह किस विषय पर थी या वो किताब कौन सी थी, इसके बारे में कोई खास जानकारी नहीं मिलती है।

इसके कई दशकों के बाद भारत में महिलाओं को अक्षरों का ज्ञान हुआ और उन्होंने किताबों को पढ़ना शुरू किया। भारत में महिलाओं ने पहली किताब किसने लिखी इसके बारे में कोई स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है।

“एक अज्ञात हिंदू महिला” सीमांतनी उपदेश को जो कमोबेश 1882 में  किसी महिला द्वारा लिखी पहली किताब कही जाती है, जिसकी लेखिका के बारे में कोई जानकारी नहीं है। हालांकि, यह किताब  पहली बार छप कर 1984 में सामने आई।

परंतु, जब यह किताब सामने आई तो इसमें दर्ज अभिव्यक्तियों से यही पता चलता है कि समाज में महिलाओं की शिक्षा और उसकी स्थिति को लेकर असहमतियां इस किताब में थीं। इस किताब के बारे में जानकारी लोकमान्य तिलक और स्वामी विवेकानंद के टिप्पणीयों से मिलती है जो उस दौर के अखबारों में दर्ज हुई।

“सीमातंनी उपदेश” ने जिस तरह महिलाओं के सामाजिक जड़ता पर कठोर टिप्पनी दर्ज की। कहना पड़ेगा उन्होंने महिलाओं के किताब के संबंध को परिभाषित कर दिया। हालांकि इसके पहले पश्चिम में मेरी वोल्स्टन क्राफ्ट ने भी इस तरह का काम कर दिया था।

‘सीमातंनी उपदेश’ तो अपने पेज नं 45 में यहां तक लिख देता है –

अब हमको खुद  इस जेलखाने से निकलने की तदबीर करनी चाहिए… बेशक, पहले हमारी हिंदी बहनों को बुरा मालूम होगा, मगर गौर को दिल में जगह देंगी तब खुद मालूम कर लेंगी कि हम पर किस कद्र मुसीबत है।

किताबों के साथ महिलाओं का संबंध

किताबों के अस्तित्व में आ जाने के बाद बहुत समय तक कहानियां-कविताएं महिलाओं ने अपना  माध्यम नहीं बनाया। इस पर पहले पुरुषों का अधिक प्रभाव रहा। उपन्यास के विधा को महिलाओं ने ज़्यादा चुना और अपनाया।

इस विधा पर महिलाओं के प्रभाव को उनके बेस्ट सेंलिग होने से समझा जा सकता है फिर चाहे हैरी पॉटर की रचनाकार जे.के.रॉलिग हो या जासूसी उपन्यास लिखने वाली अगाथा क्रिस्टी। हिंदी में शिवानी भी महिला बेस्ट सेलर के रूप में दर्ज हैं।

महिलाओं ने किताब लिखने में फिर चाहे वह कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, शोध या अन्य कोई भी विधा की किताब हो, उसके साथ जो जोनरः (लिखने की शैली) विकसित हुई। वह केवल लेखनशैली मात्र नहीं रही है। लेखन शैली में उनके साथ सामाजिक व्यवहार का हिस्सा उभरकर सामने आता है, जो शेष आधी-आबादी को अपने साथ जोड़ लेती है।

यह बात अलग है कि महिलाओं का लिखना फुर्सत के वक्त का साहित्य माना जाता है परंतु महिलाओं के लिखे साहित्य में उनकी अस्मिताओं का आना उनकी रचनाओं को प्रभावशाली बनाता है। उनका प्रतिरोधात्मक होना उनको पाठकों से जोड़ता है।

पाठकों के साथ महिलाओं के आत्म-अनुभवों को जोड़ता है, जो पुरुषों के लेखने में एकाकी होकर रह जाता है। इसलिए महिलाओं का साहित्य रचना उनके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है इस आधुनिक समय में।

महिलाएं जितना अधिक किताबें लिखेंगी

महिलाएं जितना अधिक किताबें पढ़ेगी और जितना अधिक किताबें लिखेंगी, वह मानवीय सभ्यता में महिलाओं के जीवन के उन तहों को उधेड़कर सामने ला देंगी।

महिलाओं के लिए “विश्व पुस्तक दिवस” के मायने यही हो सकते हैं कि वह अधिक-अधिक स्वयं को साहित्य के हर विधा में अभिव्यक्त करें। उनकी अभिवक्ति के अभाव में पूरा का पूरा पक्ष यथार्थ से एक अलग ही तस्वीर प्रस्तुत करता है।

मेरे हिसाब से सच्चाई यही है कि पूरी दुनिया भर में महिलाओं के जीवन में मौजूद विविधता, उनके साथ हो रही असमानता, जिसके एक नहीं कई आधार है, के बारे में अज्ञानता है, उनका सामने आना और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना बहुत अधिक जरूरी है।

इसको समझे और जाने बिना आधी-आबादी के लिए सामाजिक समानता और स्वतंत्रता की दुनिया को रचना मुनकीन ही नहीं है।

मूल चित्र : gawrav from Getty Images Signature, Canva Pro

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