कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

माँ बस माँ होती है, साबित कर रही हैं ये माएँ…

पिछले दिनों कोरोना महामारी के दौरान अचानक ट्विटर पर मनीषा मंडल का मैसेज वायरल होने लगा कि "क्या कोई डोनर ब्रेस्ट मिल्क दे सकती हैं?"

पिछले दिनों कोरोना महामारी के दौरान अचानक ट्विटर पर मनीषा मंडल का मैसेज वायरल होने लगा कि “क्या कोई डोनर ब्रेस्ट मिल्क दे सकती हैं?”

महिलाओं को देवी तुल्य माने जाने वाले अपने देश के सभ्यता-संस्कृत्ति में महिलाओं का जीवन हमेशा से ही संघर्षपूर्ण रहा है।

गरिमा और सम्मान के तमाम दावों के बाद भी सांस्कृत्तिक स्तर पर महिलाओं को वह सम्मान कभी नहीं मिला, जिसकी वह हमेशा से हकदार रहीं। फिर चाहे वह जीवन में निजी दायरा हो या सार्वजनिक दायरा, दोनों ही जगहों पर उसे अपनी गरिमा और सम्मान के लिए हमेशा संघर्ष करना पड़ा।

परंतु, इससे ही जुड़ा हुआ एक अलहदा नज़रिया यह भी है कि सदियों से भारतीय महिलाओं ने अपने ओज़ से समाज ही नहीं बल्कि राष्ट्र के निमार्ण में वह योगदान दिया है जिसने जीवन और जीवन को सकारात्मक दिशा देने वाली मानवता को नया रूप दिया है।

मातृत्व के गुण के कारण महिलाओं के पास बच्चे जो समाज-देश का भविष्य होते है उसके मानवीय समाजीकरण की चाबी हमेशा से महिलाओं के पास ही रही। इसके दम पर कई अवसरों पर महिलाओं ने मानवता का बेमिसाल इतिहास रचा जिसे नजरअंदाज तो किया जा सकता है लेकिन भुलाया नहीं जा सकता।

चाहे वह पन्ना धाय हो जिन्होंने उदय सिंह के हिफाजत के लिए अपने बेटे की कुर्बानी दे दी और धाय मां कहलाई या फिर वे जिन्होंने मुस्लिम शासकों से वैवाहिक संबंध स्थापित करके भारत में मिली-जुली सभ्यता को संवारा और सींचा हो। फिर शिवाजी के लालन-पोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली जीजाबाई, जिन्होंने मराठाओं को गौरव दिया, उनको भूलना आसान कहाँ?

महिलाओं ने अपने आत्मसम्मान मे लिए जौहर जैसी परंपरा तक का निमार्ण कर लिया, वर्चस्ववादी संस्कृत्ति के खिलाफ। फिर भी, भारतीय सभ्यता-संस्कृत्ति के संवहन में महिलाओं की भूमिकाओं को हमेशा नजरअंदाज किया जाता रहा है।

महिलाओं की यही सस्कृत्ति आधुनिकता के दौर में  मौजूदा कोरोना के महौल में दिखने लगे तो उस महिला के लिए बस यही वाक्य निकलता है… “गर्व कीजिए ये हिंदुस्तान की स्त्रियां हैं…”

शानदार, जिंदाबाद और जर्बदस्त…

पिछले दिनों कोरोना महामारी के दौरान अचानक से ही ट्विटर पर मनीषा मंडल का मैसेज वायरल होने लगा कि “क्या कोई डोनर ब्रेस्ट मिल्क (स्तनपान) दे सकती हैं? असल में एक दिन का नवजात शिशु है जिसकी मां की कोरोना से मौत हो गयी है और वो अब इस दुनिया में नहीं है।”

जिसके बाद सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक सफूरा ज़रगर ने लिखा – “हां, मैं दे सकती हूं।”

गौरतबल हो यह वही सफूरा हैं, जिन पर सोशल मीडिया पर पितृसत्तात्मक समाज के तमाम लानतों के ताने दिये गए, उनका चरित्र हनन तक किया गया। वज़ह सिर्फ यह कि सफूरा अपने विचारों के केवल आजाद ख्याल ही नहीं, जागरूक महिला हैं।

सफूरा का एक अंजान नवजात शिशु के लिए ऐसी पहल करना मानवता के दिशा में बहुत बड़ा कदम तो है ही, तमाम पितृसत्तात्मक साजिशों के मुंह पर जोरदार तमाचा भी है, जो अक्सर अपने तानों में मर्दानगी को “मां का दूध पीया है तो…” जैसे तोहमतों में मापता है।

बहरहाल, कोविड के मौजूदा दौर में हमारे देश की गर्भवती महिलाएं अपने एक शरीर में दो जान को संभाले एक जंग तो लड़ ही रही हैं। इस तरह के कई मामले अब सामने आ रहे है जिसमें  गर्भवतीयों ने जन्म देते ही अंतिम सांस ली

इनके नवजात को स्तनपान मिल सके इसके लिए स्तनपान करा सकने वाली माताओं की आवश्यकता पड़ रही है। कुछ बच्चों को तो आस-पास कोई माता उस समय उपस्थित मिल जाती है। कई बच्चे है जिनकी मां इस महामारी ने छीन ही लिया अन्य किसी ने भी उन्हें यह अति आवश्यक भोजन नहीं मिल सका।

अपने देश में बेस्टफींडिंग बैंक जैसी अवधारणा का विकास भी नहीं हो सका है, यह कही-कहीं पर चलन में रहा भी है तो आवश्यकता नहीं पड़ने पर बंद हो चुके हैं। महामारी के दौर मे बेस्टफींडिंग बैंक एक जरूरी आवश्यकता है जिसका ख्याल जिला प्रशासन, राज्य या केंद्र नहीं तो कम से कम अस्पताल प्रशासन को तो होना ही चाहिए।

इसके लिए विशेष जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है क्योंकि यह कोई जबरदस्ती का काम नहीं है। कई महिलाएं होती हैं जिनके बच्चे बड़े होते ही मां का दूध पीना छोड़ देते हैं। मगर मां का दूध तब भी बनता रहता है, तो वे उस दूध को दान कर सकती हैं।

सरकार और महिला/बाल विकास मंत्रालयों का इस दिशा में सहयोग इसलिए महत्वपूर्ण हो सकता है कि उनके सहयोग से बेस्टफींडिंग बैंक में मां का दूध स्टोर कैसे होगा इसके लिए संसाधन विकसित किया जा सकता है।

महामारी के दौर में इसके लिए छोटे स्तर पर जागरूकता तो शूरू की जा सकती है क्योंकि मौजूदा वक्त में इसकी जरूरत अधिक महसूस हो रही है।

वैसे मनीषा मंडल और सफूरा ज़रगर के बेस्टफींडिंग स्टेट्स वायरल होने के बाद सरकार महामारी के दौर में गहरी नींद से जागते हुए पेरेंट्स की मौत के बाद बच्चों को किन को सौंपा जाए विषय पर अचानक से हरकत में आई दिख रही है क्योंकि आशंका है कि  बच्चों के अनाथ होने पर सोशल मीडिया पर गोद लेने की गैरकानूनी पोस्ट शेयर हो रहे हैं।

वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन ने भी इसको लेकर अपनी चिंताएं जाहिर की हैं और लोगों को जागरूक रहने की अप्रील कर रही है। मुख्य सवाल तो यही है कि जिला प्रशासन, राज्य या केंद्र नहीं तो कम से कम अस्पताल प्रशासन के पास बेस्टफींडिंग के समस्या की तरह ही इस समस्या का कोई समाधान है?

यह कोरोना महामारी के दूसरे दौर में ही अचानक से इस विषय पर सक्रिय क्यों हो रही है क्या केवल कोरोना महामारी में ही बच्चे अनाथ हो रहे है? क्या इन समस्याओं के लिए कोई स्थायी विकल्प हमारे पास नहीं होने चाहिए? क्योंकि हर नवजात अनाथ बच्चे के लिए पन्ना धाय या सफूरा जैसी महिलाओं का सामने आना संभंव नहीं है।

आपदा में मानवता की बात अगर जोड़-शोर से फैलाई जाए तब शायद कई पन्ना धाय खड़ी हो जाएँ।  यह संभव है क्योंकि महिलाएं मानवता की वह शै है जो मानवता को सींचना जानती है।

मूल चित्र : Mom & Baby by RomanoavAnne, Getty Imges Pro, via CanvaPro

About the Author

240 Posts | 736,184 Views
All Categories