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मौत शुरू हुई सपनों से, यहाँ की औरतों के। सिर्फ अफ़ग़ान की औरत, घुटती हुई, बेदम! क्या कुँए से निकल कर खाई में जाना ही औरत की नियति है?
मौत शुरू हुई सपनों से, यहाँ की औरतों के। चक्की में पिसी सिर्फ अफ़ग़ान की औरत, घुटती हुई, बेदम। क्या कुँए से निकल कर खाई में जाना ही औरत की नियति है?
साल १९८४ की बात है। नेशनल जियोग्राफिक के फोटोग्राफर स्टीव मेकररी की बेहद मशहूर फोटो मैगज़ीन के कवर पर प्रकाशित हुई। अफ़ग़ान की खूबसूरती और उसका द्वेष, दोनों उन हरी आँखों में चमकता दिखा, और वेस्ट के लिए अफ़ग़ान औरत एक नया सर्कस का जीव बन गयी, जिसके बारे में वो अपनी कल्पनाएं लिख सके।
उस औरत का नाम था शरबत गुला, और उसने उस फोटो के लिए मंज़ूरी नहीं दी थी। अमेरिका ने वही किया जो वो हमेशा से करता आया था, अपने दम्भ में हर इंसान पर अपना हक़ समझ कर उसकी सीरत और सूरत को अपने मुनाफ़िक़ दुनिया के सामने पेश करना।
खैर, ये तो काफी बाद की बात है, थोड़ा और पीछे जाते हैं, ७० के दशक के आस पास, जब अफ़ग़ानिस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान हुआ करता था। ये वो दौर था जब अफ़ग़ानिस्तान में पीपलस डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ अफगानिस्तान ने अपनी जगह बनाई। एक ऐसी पार्टी जो कम से कम लिखित में लोगों को उनका हक़ देने में विश्वास रखती थी। मगर इंसानी फितरत का कमाल देखिये, इन्होने यहाँ भी अपना खेल चलाया।
PDPA ने धार्मिक कानून को मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट एजेंडा से प्रतिस्थापित किया। एजेंडा इसलिए, क्योंकि यहाँ पर लोग और देश सम्मिलित नहीं हो रहे थे, लोगों पर एक तरह की सोच थोपी जा रही थी। आदमियों को कहा गया वो अपनी दाढ़ी काटें, और औरतों के लिए बुर्क़े अवैध कर दिए गए। डेमोक्रेसी तो खैर ये कहीं से नहीं थी, क्योंकि आधुनिक बनने का इनका तरीका आया अमेरिकन और पाश्चात्य संस्कृति से। और एक बार फिर, औरत का पहनावा ही उसका दुश्मन बना।
जो औरत अपना अस्तित्व बुर्क़े या निक़ाब में मानती, इसलिए नहीं की उस पर वो बलपूर्वक डाला गया है, बल्कि इसलिए क्योंकि वो उसके लिए उसके ईश्वर के प्रति आस्था है, अब उससे उसका ईमान छीन लिया गया था। जब हक़ छीने जाते हैं, तब आवाज़ें बुलंद होती हैं, और तब दूसरी तरफ से एक और तरह के चरमपंथी निकल कर आते हैं।
इस बार, चरमपंथी धर्म की तरफ से थे। ज़्यादा विस्तार में नहीं जाऊंगी, वो सब आप काबिल लेखकों और विद्वानों के पेपर्स में पढ़ सकते हैं। मगर इतना कहूँगी की सोवियत के वार और US के आक्रमण ने अफ़ग़ानिस्तान को तोड़ कर रख दिया। एक तरह के चरम से निकालने का दिलासा दे कर, उन्होंने इस देश को एक मरघट में बदल दिया, और मौत शुरू हुई सपनों से, यहाँ की औरतों के।
पर क्या इसका मतलब तालिबान सही है? क्या कुँए से निकल कर खाई में जाना ही औरत की नियति है?
तालिबान और दूसरे आतंकी संघठनों ने वो सब किया जिसकी इस्लाम इजाज़त नहीं देता। उन्होंने औरतों से जबरन निकाह किया, उनके शरीर को अपने नाजायज़ सम्भोग के लिए इस्तेमाल किया, उनकी पढ़ाई रोकी, और सबसे नापाक, उन पर पर्दा ज़बरदस्ती लगाया, जब कि इस्लाम में सब कुछ खुद की मर्ज़ी और ईमान पर निर्भर करता है। शिक्षा तो औरत का बुनियादी हक़ है। और तो और, कोई भी निकाह औरत की रज़ामंदी के बगैर जायज़ माना ही नहीं जा सकता। तो यह कैसे हुआ? जो मर्द औरत के वजूद और मर्यादा को अपने पाँव के नीचे कुचल दे वो किसी भी धर्म की नज़र में पाक कैसे हुआ? US के ज़ुल्म या तालिबान की निर्दयता, उस चक्की में पिसी सिर्फ अफ़ग़ान की औरत, घुटती हुई, बेदम।
अफ़ग़ान की औरतों का जीवन बुझता चला गया, और उस अंधकार के पैरवी बढ़ते चले गए। उसकी तरफ आँख मूँद लेने वाले भी। वही अंधकार अब फिर से आया है। एक आक्रमणकारी तो चला गया, पर दूसरे के हाथ में दुर्दशा के लिए एक मरा हुआ देश छोड़ गया। तालिबान, एक ऐसी संस्था जिसने औरत को इंसान ही नहीं समझा।
आप US के अफ़ग़ानिस्तान से चले जाने का जश्न इसलिए मन सकते हैं क्योंकि आप उस देश में नहीं हैं। चाहे कपड़े नोच कर या कपड़ों में बांध कर, दोनों तरफ से किसी ने भी अफ़ग़ान की औरतों से नहीं पूछा कि उनको क्या चाहिए। और आज भी जब वो चिल्ला रही हैं तो दूसरे देश में बैठे ऐसे कई हैं जो उनकी तकलीफ को दरकिनार कर तालिबान के कसीदे काढ़ रहे हैं।
क्यों? ये नया तालिबान है, ये औरत को सांस लेने की इजाज़त देगा?
शरबत गुला से ले कर आज तक, क्या बदला? हम सबने अफ़ग़ान की औरत का सिर्फ फ़ायदा उठाया, और आज भी अपने मतलब से उनकी आवाज़ को अनसुना कर रहे हैं। शायद जाग जाएँ तो वो चीखें अपने ज़ेहन में क़ैद कर के कुछ कर पाएंगे इस दुनिया के लिए, वरना हम मर चुके हैं।
मूल चित्र : Wikipedia
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