कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

फिल्म 200 हल्ला हो की सत्य घटना समाज का एक भयानक सच सामने लाती है

फिल्म 200 हल्ला हो फिल्म देखने के बाद पता चला कि ये 17 साल पहले घटी एक सत्य घटना पर आधारित है और जब सच जाना तो रूह कांप गई।

फिल्म 200 हल्ला हो फिल्म देखने के बाद पता चला कि ये 17 साल पहले घटी एक सत्य घटना पर आधारित है और जब सच जाना तो रूह कांप गई।

“हमें अब आदत हो गई है चाय पीते हुए अख़बार में अपराध की सुर्खियां पढ़ने की और पढ़कर कुछ ना महसूस करने की। ऐसे अपराधों के लिए हमारी संवेदनहीनता सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली बात है।”

ये फिल्म 200 हल्ला हो में कोर्टरूम में कहा गया वो सच है जो दीमक बनकर हमारे समाज को खोखला कर चुका है। हम भी अख़बार की सुर्खियां पढ़ते हुए और टीवी पर समाचार सुनते हुए शायद कुछ ऐसा ही महसूस करते हैं कि कुछ महसूस नहीं करते।

हम भी दूसरों की तरह यही कहते हैं कि यार रोज़ अख़बार में बस यही सब आता है। अख़बार के हर पन्ने पर आपको एक जुर्म की कोई ना कोई हैडलाइन ज़रूर पढ़ने को मिलेगी लेकिन पन्ना पलटते ही उस अपराध की आवाज़ किसी के कानों तक नहीं पहुंचती।

एक ऐसी ही असाधारण घटना महाराष्ट्र के नागपुर में साल 2004 में हुई जो ख़बर बनकर अख़बारों में छपी, केस बनकर अदालतों में लड़ी गई लेकिन फिर हर दूसरी घटना की तरह कहीं खो गई। Zee5 पर आई फिल्म 200 हल्ला हो के ज़रिए निर्देशक सार्थक दासगुप्ता ने इस सच्चाई को फिर से दुनिया के सामने लाने की एक कोशिश की है।

फिल्म 200 हल्ला हो 17 साल पहले घटी एक सत्य घटना पर आधारित है

फिल्म देखने के बाद इसके बारे में पढ़ा तो पता चला कि ये 17 साल पहले घटी एक सत्य घटना पर आधारित है और जब सच जाना तो रूह कांप गई। नागपुर में 13 अगस्त, 2004 को कस्तूरबा नगर की 200 औरतों ने मिलकर ज़िला अदालत के बीचों-बीच अक्कू यादव को मौत के घाट उतार दिया था। इन औरतों ने अक्कू यादव पर 70 बार चाकू, हथौड़े, कैंची, लाल मिर्च से हमला किया। ये 15 साल से अक्कू यादव का शिकार हो रही इन दलित महिलाओं का दफ़्न हो चुका आक्रोश था जो उस दिन तूफ़ान बनकर बाहर निकला।

क्या है कहानी 200 हल्ला हो की?

ज़ेहन में सवाल आएगा क्यों और कैसे? क्योंकि ऐसी ख़ौफ़नाक मौत देने के पीछे कोई ना कोई मकसद ज़रूर होता है। इस मकसद को जानने के बाद कहीं ना कहीं शायद आपको भी इन औरतों से सहानुभूति होगी। फिल्म की कहानी शुरू होती है कोर्टरूम से जहां गुंडे बल्ली चौधरी की लाश और उसके शरीर के कटे हुए टुकड़े पड़े हैं और अचानक 200 औरतों का झुंड अपना चेहरा छिपाकर बिजली की तेज़ी से उस कोर्ट ने बाहर चली जाती हैं।

यूं कोर्टरूम में पुलिस प्रोटेक्शन में किसी का ख़ून हो जाना पूरे जस्टिस सिस्टम को हिलाकर रख देता है। पुलिस राही नगर की 5 महिलाओं को जबरन गिरफ्तार कर लेती है और जेल में उनके मारपीट करती है। फिर शुरू होता है राजनीति, पुलिस प्रशासन, न्याय व्यवस्था के साथ पीड़ित महिलाओं का दंगल। राजनेता अपने चुनाव के लिए इस घटना को दबाने की कोशिश करता है तो पुलिस ख़ुद पर लगे धब्बे को हटाना चाहती है लेकिन कोई ये नहीं जानना चाहता कि ये सब हुआ क्यों।

दूसरी तरफ़ महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बना महिला आयोग एक फैक्ट फाइंडिग कमेटी बनाती हैं जिसकी कमान एक रिटायर्ड जज (अमोल पालेकर) एक रिपोर्टर, एक वकील और एक सोशल वर्कर को सौंपी जाती है। हालांकि सच के क़रीब आने की कोशिश कर रही इस कमेटी को भी राजनीतिक दबाव के कारण बाद में बंद कर दिया जाता है लेकिन कमेटी की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस विट्ठल डांगले इस लड़ाई को लड़ने का मन बना लेते हैं।

इस फिल्म में अमोल पालेकर ने एक जज के दो किरदार निभाए हैं

इस फिल्म में अमोल पालेकर ने एक जज के दो किरदार निभाए हैं, एक तरफ़ वो जज है जिसके लिए कानून हर धर्म से बढ़कर है और दूसरा वो दलित जज है जो ख़ुद को तो समझा लेता है कि वे अपने सामाजिक ढांचे से ऊपर उठ चुके हैं लेकिन इस घटना के बाद ज़मीनी हक़ीकत से रूबरू होते हैं। अमोल पालेकर की सुंदर भाषा, स्पष्ट शब्द और अफर्टलेस एक्टिंग ने जस्टिस विट्ठल डांगले को कहानी का हीरो बना दिया है।

दूसरी सशक्त भूमिका निभाई है रिंकू राजगुरू ने

दूसरी सशक्त भूमिका निभाई है रिंकू राजगुरू ने जिन्होंने राही नगर में रहने वाली आशा सुर्वे का किरदार निभाया है। आशा ख़ुद दलित समाज से हैं जो अपने हालात बदलने के लिए पढ़ लिखकर कई सालों से राही नगर से दूर शहर में एक कंपनी में काम करती है। लेकिन वो एक दिन घर लौट आती है और राही नगर की औरतों पर बल्ली चौधरी के ज़ुल्मों के बारे में जान जाती है।

आशा जानती है कि दलित समाज का सच उसका तब तक पीछा नहीं छोड़ेगा जब तक वो ख़ुद मिलकर इसे नहीं बदलना चाहेंगे। उसके आने से बस्ती में जैसे फिर से हिम्मत आ जाती है। वो पुलिस में रिपोर्ट लिखवाती है और वकील उमेश जोशी (बरून सोबती) के साथ गिरफ्तार की गई पांचों महिलाओं को छुड़ाने की कोशिश करती है। इंसाफ़ और न्याय के इस भंवर में हवा का ठंडा सा झोंका लाने के लिए आशा सुर्वे और उमेश के प्यार की एक छोटी सी कहानी भी बुनी गई है। बरून ने अपने किरदार को थोड़ा अंडरप्ले किया है ताकि उनकी आवाज़ में वो आवाज़ें ना दब जाएं जिन्हें सुनना ज़रूरी है।

जब किसी विलेन का किरदार निभाने वाले से आपको नफ़रत हो जाए तो इसका मतलब है

जब किसी विलेन का किरदार निभाने वाले से आपको नफ़रत हो जाए तो इसका मतलब ये है कि वो कलाकार अपना किरदार बखूबी निभा रहा है। फिल्म में बल्ली चौधरी का रोल करने वाले साहिल खट्टर ने कुछ ऐसा ही काम किया है। उनके हाव-भाव, हवस से भरी घृणित बातें सुनकर आपको उनसे नफ़रत हो जाएगी।

तारा बाई का किरदार थिएटर एक्ट्रेस सुषमा देशपांडे ने अदा किया है

पुलिस जिन पांच औरतों को गिरफ्तार करती है उनमें से एक तारा बाई का किरदार थिएटर एक्ट्रेस सुषमा देशपांडे ने अदा किया है। फिल्म अज्जी में अपने पावरफुल किरदार के बाद वो जाना-माना चेहरा बन गई हैं। इस फिल्म में उन्होंने उस औरत की भूमिका निभाई है जिसकी बेटी को बल्ली चौधरी सबके सामने बेइज्ज़त करता है और उसे काटकर मार डालता है क्योंकि वो उसके ख़िलाफ़ पुलिस स्टेशन जाने की हिम्मत करती है। तारा बाई के साथ इस संग्राम में सारी औरतें एक साथ आ जाती हैं क्योंकि उनके साथ भी कई सालों से यही होता रहा है।

बल्ली को ना सज़ा का डर है ना ही पुलिस प्रशासन का ख़ौफ़ क्योंकि उसके सिर पर कई बड़े लोगों का हाथ होता है। कोर्ट रूम में घटित वो सीन आपके रोंगटे खड़े कर देगा जब ये 200 औरतें मिलकर बल्ली से बदला लेती हैं। इन औरतों को अपने किए के लिए जेल भी जाना पड़ता है लेकिन फिर उच्च न्यायलय में जस्टिस विट्ठल उनका केस लड़ते हैं तो केस नया मोड़ ले लेता है।

फिल्म 200 हल्ला अहम पहलुओं पर प्रकाश डालती है जिनमें से सबसे अहम है जातिवाद

ये फिल्म कई अहम पहलुओं पर प्रकाश डालती है जिनमें से सबसे अहम है जातिवाद। संविधान भले ही सभी धर्मों और जातियों को एक समान देखता है लेकिन क्या ज़मीनी हक़ीकत भी यही है। नहीं, असलियत में दलितों को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है विशेषकर महिलाओं को।

फिल्म में रिपोर्टर का किरदार निभा रही सलोनी बत्रा कहती हैं, “इस देश में खास लोगों के बाद आता है मिडल क्लास, फिर लोअर क्लास, फिर ग़रीबी रेखा से नीचे वाले लोग, फिर आते हैं दलित और सबसे आख़िर में आती हैं दलित औरतें, और इतनी नीचे से आवाज़ आने में 10 साल लग सकते हैं।”

फिल्म की धुरी यही जातिवाद और पितृसत्तात्मक समाज है जो बार-बार ख़ास लोगों को ये याद दिलाता रहता है कि समाज में जो जगह उनकी है वही दलितों की भी है और जो जगह पुरुषों की है वही महिलाओं की भी है। कुल मिलाकर फिल्म पावरफुल लगती है और अपनी कहानी के हर पहलू को बताने में सक्षम साबित हुई है।

आपको फिल्म अच्छी लगे या ना लगे ये पूरी तरह आपकी पसंद-नापसंद पर है लेकिन एक बार ये फिल्म देखिएगा ज़रूर क्योंकि कुछ सच जानने सबके लिए ज़रूरी होते हैं।

मूल चित्र : Still from film trailer, YouTube 

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

133 Posts | 494,219 Views
All Categories