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छोटी उम्र में प्रीतम से ब्याही गईं और फिर दो बच्चों की माँ बनने के बाद अमृता प्रीतम ने अपनी जिंदगी में साहिर में प्रेम खोजा और इमरोज़ से प्रेम पाया।
“साहिर मेरी जिंदगी के लिए आसमान हैं और इमरोज मेरे घर की छत” – अमृता प्रीतम
छोटी उम्र में प्रीतम से ब्याही गईं और फिर दो बच्चों की माँ बनने के बाद अमृता ने अपनी जिंदगी में साहिर में प्रेम खोजा और इमरोज़ से प्रेम पाया। फिर भी अमृता ने प्रीतम का नाम हमेशा अपने साथ जोड़े रखा।
मशहूर कवियत्री और साहित्यकार अमृता प्रीतम के नाम से कौन परिचित नहीं। उनकी जिंदगी हमेशा से ही एक खुली किताब की तरह रही है। जो चाहे उसे पढ़ डाले। एक ऐसी किताब जिसमें सब कुछ सच-सच और बेबाक लिखा है। कहीं कोई मिलावट नहीं, कोई धोका नहीं, कोई फंतासी नहीं।
अपने दौर की सशक्त महिला जिसके पास वो आवाज़ थी जो उस दौर की औरतों के पास होती ही नहीं थी। अगर होती भी होगी तो वो उनके गले से बाहर भी न आ पाती होगी। पर अमृता के पास आवाज़ उठाने और ख़ुद को व्यक्त करने के एक नहीं दो हथियार थे। एक उनकी ज़ुबान और दूसरी उनकी कलम।
अमृता ने अपनी कलम पर कभी लगाम नहीं लगाई और न ही किसी को लगाने दी। वो बेबाक लिखती थीं, बिना डरे बोलती थीं। टूटकर-डूबकर मोहब्बत करती थीं। दुनिया की बनाई बेजा बंदिशों की पहुँच से बहुत दूर थीं।
पंजाब के गुंजरावला में पैदा हुई पंजाबी भाषा की पहली कवियत्री अमृता ने अपनी किशोरावस्था से ही लिखना शुरू कर दिया था। कविता, कहानी, उपन्यास और संस्मरण सब कुछ लिखती थीं वो। औरत और मर्द के रिश्तों की ऊहा-पोह और एहसासों को औरत के नज़रिये से लिखना इससे पहले कभी किसी ने किया ही कहाँ था।
“कोई भी लड़की, हिंदू हो या मुसलमान, अपने ठिकाने पहुँच गई तो समझ लेना कि पुरो की आत्मा ठिकाने पहुँच गई।”
पिंजर में अमृता ने पुरो के द्वारा कही गई इन पंक्तियों के ज़रिये उस दर्द को बयां किया था जो बटवारे के दौरान पंजाब में हुए धार्मिक दंगों की चपेट में आई हर औरत ने झेला होगा। अमृता की कलम हर औरत की आवाज़ थी।
70 के दशक में जहाँ किस्से, कहानियाँ या फिल्में सिर्फ़ डरी-सहमी, मज़लूम या आदर्श स्त्री के रूप से ही परिचित करा रहे थे, उस दौर में अमृता स्त्री का एक नया और सशक्त रूप गढ़ रही थीं।
उनके उपन्यास धरती सागर ते सीपियाँ पर कादंबरी नाम की फ़िल्म बनी जिसमें मुख्य किरदार शबाना आज़मी ने निभाया था। इस फ़िल्म में नायिका शर्तों के परे प्रेम करती है और जब उसका प्रेमी उसे शर्तों के बंधन में बांधना चाहता है तो वो उसे अस्वीकार कर अपने लिए एक नया रास्ता चुनती है।
औरत का यह सशक्त चरित्र उस समय हर किसी के लिए अविश्वसनीय ही रहा होगा। पर अमृता की सोच अपने समय से बहुत आगे की थी।
अमृता ने अपने जीवन और रिश्तों को कभी दबा-छुपा कर नहीं रखा। दुनिया और समाज कभी उनके दिली जज़्बातों के आड़े नहीं आ पाये। अपनी आत्म-कथा रसीदी टिकट में उन्होंने साहिर लुधियानवी के प्रति अपने प्रेम को खुलकर बयान किया। ये बात और है कि साहिर कभी उनकी एहमियत नहीं समझ पाए।
“चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों…”
साहिर ने दिल तोड़ा पर अमृता टूटी नहीं। उन्हें फिर इमरोज़ मिले, वो मोहब्बत मिली जिसकी वो हक़दार थीं। अमृता ने उस दौर में बिना शादी के बंधन में बंधे, दुनिया जहां की चिंता किए बगैर इमरोज़ के साथ अपना जीवन एक घर में बिताया।
1966 में ही अमृता ने हमें लिव-इन से परिचित करा दिया था। इमरोज़ अमृता को अपना समाज कहते थे। इमरोज़ उनसे इश्क़ करते रहे और अमृता इश्क़ लिखती रहीं। अमृता-इमरोज़ के खतों का सफरनामा किताब में हम उन बेहतरीन प्रेम पत्रों को पढ़ सकते हैं जो अमृता ने इमरोज़ को और इमरोज़ ने अमृता को लिखे। हर ख़त में बस कुछ ही पंक्तियाँ हैं पर हर ख़त हज़ार जज़्बातों से भरा है।
स्वच्छंद विचारधारा और मुक्त वाणी ये दोनों ही गुण जब किसी औरत में होते हैं तो समाज को बर्दाश्त नहीं होता। गुण अचानक से अवगुणों में बदल जाते हैं। बटवारे का दर्द, रिश्ते, प्रेम और बहुत कुछ मिलाकर अमृता ने 100 किताबें लिख डालीं। कई सम्मान भी पाए। पर उसके साथ झेली ढेर सारी आलोचना।
स्त्री की आलोचना सबसे पहले उसके चरित्र को हथियार बनाती है और फिर उसके काम को। अमृता ने तो जीवन और चरित्र पर सवाल उठाए जाने के लिए अवसर खोल ही रखे थे पर वो निडर थीं। 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने के बाद भी उनके लेखन पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ होती ही रहती थीं।
पत्रिका आउटलुक के अपने मशहूर लेख में खुशवंत सिंह ने 2005 में लिखा था, “उनकी कहानियों के किरदार कभी जीवंत होकर सामने नहीं आते थे। अमृता की कविता ‘अज्ज आखां वारिस शाहू नूँ’ ने उन्हें भारत और पाकिस्तान में अमर कर दिया। बस यही 10 पंक्तियाँ है जो उन्हें अमर बनाती हैं। मैंने उनके उपन्यास पिंजर का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया था और उनसे गुज़ारिश की थी कि बदले में वो अपनी ज़िंदगी और साहिर के बारे में मुझे विस्तार से बताएँ। उनकी कहानी सुनकर मैं काफ़ी निराश हुआ। मैंने कहा था कि ये सब तो एक टिकट भर पर लिखा जा सकता है। जिस तरह उन्होंने साहित्य अकादमी जीता वो भी निराशाजनक किस्सा था।”
इस आलोचना के बाद ही अमृता ने रसीदी टिकट के रूप में अपनी आत्मकथा लिखी थी।
कभी-कभी सोचती हूँ अमृता उस दौर में न होकर आज इस दौर में होती तो कैसा होता? यूँ तो किसी भी औरत के लिए कोई भी दौर एक जैसा ही होता है। सब कुछ कहने को है बस, आज़ादी, खुलापन, तरक़्क़ी, बदलाव और बराबरी। पर सच तो ये है कि अमृता ने अपनी इस बेबाकी को बनाए रखने के लिए तब जितना संघर्ष किया होगा आज भी शायद उतना ही करना पड़ता।
पर अमृता को आज भी होना ही चाहिए। किसी न किसी रूप में, हर औरत के अंदर हमें एक अमृता चाहिए। अपनी जिंदगी अपने लिए जीना, अपने फ़ैसले अपने हिसाब से करना, उनके नतीजों को अपनाना और कभी न घबराना। ज़िंदादिली और बेबाकी से जीना, टूटकर प्रेम करना और अपना स्वाभिमान संजोय रखना। यही तो थीं अमृता, एक सबल, निडर, सशक्त और प्रेममयी स्त्री।
मूल चित्र : YouTube
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