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बहुत बुरा लगता मुझे कि मुझे ससुराल और ससुराल के रिश्ते होते हुए भी कुछ नहीं मिला। और मेरे ही कारण मेरे पति भी परिवार से अलग हो गए...
बहुत बुरा लगता मुझे कि मुझे ससुराल और ससुराल के रिश्ते होते हुए भी कुछ नहीं मिला। और मेरे ही कारण मेरे पति भी परिवार से अलग हो गए…
खोना-पाना जीवन के दो बहुमूल्य पहलू हैं। सच बात है, जीवन में पाने की जितनी महत्ता है, तो खोना भी कोई भूल नहीं सकता।
मेरा प्रेम-विवाह हुआ है और अभी तक ससुराल वालों ने मुझे स्वीकार नहीं किया है। वे हमें अपना परिवार का हिस्सा नहीं मानते। उन्होंने अपने बेटे से भी सारे सम्बन्ध तोड़ लिये हैं। सिर्फ मेरे मायके वालों का साथ है। पर ज़िंदगी में संतुलन के लिए हर रिश्ते की जरूरत होती है।
हम दोनों अपनी ज़िंदगी में अकेला महसूस करते थे। जब भी कोई त्यौहार या रस्म-रिवाज़ होते तो हमेशा रोना आता था। एक कमी महसूस होती रहती। लगता था गलती हुयी है हमारे से। मेरे पति भी उदास और चिड़चिड़े रहते।
मुझे शादी के बाद जो रिश्ते मिलने थे, उससे मैं अनजान ही रह गयी। पति को लगता उनके एक निर्णय ने उनका सब कुछ छीन लिया। हमने मिन्नतें की, बहुत गिड़गिड़ाए। मेरे मायके वाले भी मनाने गये, पर उन लोगों ने स्पष्ट कह दिया कि हम लोगों से उनका कोई रिश्ता, कोई वास्ता नहीं है।
न कभी कोई बात, न आशीर्वाद, न प्यार, न रस्म, न रिवाज, न ससुराल का प्यार, मुझे कुछ भी इस शादी से नहीं मिला।
मैं जॉब करती हूँ और हम अकेले किराये के मकान में रहते हैं।
ऐसा लगता है कि समाजिक प्रतिष्ठा उनकी धूमिल हो गयी, इस शादी से इसलिए सारे नाते तोड़, हमें अकेले छोड़ दिया।
मेरे पति भी प्राइवेट काम करते हैं, दोनों वर्किंग हैं, और कोई परिवार नहीं! दिक्कत तो होती ही है।
घर में किसी बड़े का साथ नहीं होना कभी-कभी तो बहुत खलता। लगता सब कुछ लुट गया। बच्चे हुए हमारे, फिर भी न कोई देखने आया, न बच्चों को आशीर्वाद दिया।
दूर के रिश्तेदार भी यदि हमसे बातें करते तो ससुराल वाले उनसे भी रिश्ता तोड़ लेते। कोई बात भी करता तो छुपकर।
ससुराल में कोई कमी नहीं है लेकिन हम लोग कम आमदनी में ही हम गुजारा करते। समाजिक, परिवारिक, आर्थिक, भवनात्मक कोई भी सहयोग ससुराल से न मिलना बहुत खलता। समाज में मुझे भी नीचा ही समझा जाता।
इस तरह अपने ससुराल को न पाकर मैं बहुत दुखी रहती। पति को भी त्योहारों में बहुत ज्यादा याद आती घर की। पर वहाँ मानों हमारे लिए बम रखा हुआ हो। हम जाने का साहस नहीं कर पाते। ज़ाहिर सी बात है, जब बातें न होतीं तो आना-जाना सम्भव ही नहीं है। बच्चे भी बिना परिवार का ही बड़े हो रहे हैं।
पर हाँ मैं अपने जॉब के अलावा, कई साहित्यिक, समाजिक, विद्यालय के गतिविधियों में भाग लेती, जो मुझे शायद ससुराल में रहने पे अनुमति न मिलती। या समय न मिलता। मैं तो चाहती हूँ, परिवार हो, रोक-टोक हो, संस्कार हो, आदर, सम्मान मेरे बच्चे ज़िन्दगी क्या है, ये सीख सकें…
फिर कभी-कभी तसल्ली के लिए सोचती हूँ कि जब उन लोगों के तरफ से मुझे अपनाया नहीं जा रहा है तो पति और मैं अपने तरह से ज़िंदगी जीते हैं, खुद फैसला लेते हैं, खुद लाभ-हानि झेलते हैं। और इन परिस्थितियों से लड़ते हुए भी हम लोग आगे ही निकल रहे हैं।
इसमें भी हमने सकारात्मक प्रभाव ढूंढा, पति का साथ, मेरा विश्वास और आज मैं जो कुछ भी हूँ…
मैं कई कार्यों के लिए घर से बाहर जाती हूँ, मेरी पहचान बनी है खुद की। मैं अपने विद्यालय के अलावा हर शिक्षण गतिविधि, ऑनलाइन शिक्षण, संगठन आदि में भाग लेती हूँ, जिसकी शायद ससुराल में रहकर अनुमति न मिलती।
लगता है शायद जो होता है, वो अच्छे के लिए होता है। उन लोगों(मेरे ससुराल वालों) के लिए मेरे मन में सम्मान कम नहीं है। वो चाहें प्यार करें या न करें।
पर इस मुश्किल वक्त का मुझे फायदा भी मिल रहा है। ज्यादा से ज्यादा अन्य सामाजिक, संस्कृति, बहुमूल्य कार्यो में भाग लेती हूँ। आज जो नेम-फेम है शायद ससुराल में रहती तो न होता।
आज जो आगे पढ़ाई जारी रखी है, यह न हो पाता, घर से बाहर कदम ससुराल में उतना नहीं रख पाती जितना अभी मैं कर पाती हूँ। आज़ादी, जो मुझे अपनों कार्यो के लिए मिल रही है, वह ससुराल में रहकर सम्भव नहीं हो पाती।
परिवार न मिलने का पछतावा है, तो जो कामयाबी की सीढ़ी हर दिन चढ़ती जाती हूँ, इसकी खुशी भी है। ऐसे संतुलन बना रही हूँ, अपने सोचने के तरीके और ज़िंदगी में।
इसलिए सच कहा गया है, “खोने का गम न कर, पाने की खुशियां मना!”
मूल चित्र : Still from Short Film Methi Ke Ladoo, YouTube
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