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हिंदी साहित्य में इन 6 महिला साहित्यकारों का योगदान कौन भूल सकता है! 

हिंदी साहित्य में इन महिला साहित्यकारों का योगदान इतना है कि इनकी रचनाएं, हर पाठक को उसके जीवन के उद्देश्यों के तलाश करने में मदद करेंगी। 

हिंदी साहित्य में इन महिला साहित्यकारों का योगदान इतना है कि इनकी रचनाएं, हर पाठक को उसके जीवन के उद्देश्यों के तलाश करने में मदद करेंगी। 

भारत का समाजिक इतिहास यह बताता है कि पढ़ने और लिखने की काबिलियत हासिल करके एक कौशल अर्जित करने का अधिकार महिलाओं को नहीं था।

जब महिलाओं में पढ़ने और लिखने  की काबिलियत हासिल करने के प्रयास किए तो “अक्षरों का ज्ञान उनको कुटिल बना देगा”, “पति की मृत्यु हो जाएगी” और कई तरह की मान्यताएं समाज में फैलाई गईं। बहुत समय तक महिला अपने अक्षरज्ञान के उपलब्धि की बात छुपाती भी रहीं

कई महिलाओं ने अपने अक्षरज्ञान के प्रतिभा को अपने लेखने से कविता-कहानियों या सम-सामायिक विषयों पर लेखन भी किया तो अपना नाम छुपाकर रखा। एक लंबी सूची है महिला रचनाकारों की, जब उन्होंने निडर होकर लिखना शुरू किया समाज में खलबली मच गई।

उसके बाद एक सिलसिला सा बन गया, पढ़ने-लिखने में काबिलियत हासिल करने वाली महिलाओं ने अपने अभिव्यक्तियों को शब्द दिए और हिंदी साहित्य के आसमान में छा गई।

हिंदी साहित्य में महिला साहित्यकारों का योगदान

स्त्री-पुरुष सत्ता सरंचना को समझते हुए इन रचनाकारों को अपनी रीडिग लिस्ट का हिस्सा बना लें। इन महिला रचनाकारों के कलमों से निकली रचनाएं, हर पाठक को उसके जीवन के उद्देश्यों के तलाश करने में मदद करेगी, उनको एक संवेदनशील नागरिक भी बना देंगी, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।

हिंदी साहित्य में इन 6 महिला साहित्यकारों का योगदान कौन भुला सकता है!

महादेवी वर्मा (26 मार्च 1907 – 11 सितंबर 1987)

आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रथम महिला हस्ताक्षर उनको कहना, कहीं से भी गलत नहीं होगा। संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को हिंदी में पिरोकर छायावाद के दौर उन्होंने जो कुछ भी रचा, वह अमर-कृति है।

कवियत्री, चित्रकार, अनुवादक और भारतीय परंपरा में स्त्री वैचारकी की नींव रखने वाली पहली भारतीय महिला, उनकी श्रृखला की कड़ियां पढ़कर कहा जाए, तो कतई गलत नहीं होगा। साथ ही साथ ये उन आलोचकों के मुंह पर तमाचा है जो स्त्री विमर्श को विदेशी विमर्श मानते हैं।

उनके कविता संग्रह, गद्य साहित्य, बाल साहित्य हिंदी के साहित्य की दुनिया को दिया वह अनमोल तोहफा है, जिनको आज के युवा पीढ़ी को पढ़ना चाहिए।

हिंदी साहित्य में उनको न पढ़ना स्वयं को हिंदी भाषा में समुद्ध करने से रोकने का घातक प्रयास होगा।

सुभद्रा कुमारी चौहान(16 अगस्त 1904 – 15फरवरी 1948)

भारत के  हिंदी प्रदेश में बच्चों-बच्चों के जुबान पर सुभद्रा कुमारी चौहान के देशभक्ति के भावना से ओत-प्रोत शब्द नहीं फूटे हो, यह हो ही नहीं सकता है। अपने देशभक्ति गीतों से भारतीय जनमानस में स्मृतियों में सुभद्रा कुमारी चौहान अमर हैं।

अपने लड़कपन के दिनों से ही शब्दों को अर्थ देने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान का कथा साहित्य भी एक विपुल भंडार है, जिसमे पारिवारिक-सामाजिक परिदृश्य है, कमोबेश पचास से अधिक कहानियां, कविता संग्रह और बाल साहित्य जिसमें झांसी की रानी और कदम्ब का पेड़ प्रमुख है।

कार दुर्घटना में असमय ही उनकी मृत्यु ने उनके रचना संचार के कैनवास को पूरा नहीं होने दिया। भले ही रचना संसार के कैनवास पर बन रचा चित्र अधूरा रह गया, पर उनका लिखा हुआ साहित्य आज भी अमिट और अमर है।

कृष्णा सोबती (18 फरवरी 1925 – 25 जनवरी 2019)

कृष्णा सोबती को एक खुदमुख्तार देश में आजाद ख्याल लेखिकाओं के सूची में पहले स्थान पर रखा जाए तो कहीं से गलत नहीं होगा।

50 के दशक में लंबी कहानी डार से बिछुड़ी से उन्होंने अपना सफर हिंदी के साहित्य की दुनिया में शुरू किया। हिंदी, उर्दू, राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती भाषाओं के शब्दों से उन्होंने साहसिक चरित्रों को गढ़ा और उन क्षेत्रों में जाकर अपने झंड़े गाड़े जिस दायरे में अब तक हिंदी लेखिकाएं प्रवेश नहीं किया करती थीं – यौनिकता के दायरा।

उनकी लेखनी में स्त्री-पुरुष दोनों के पक्षों का गजब का संतुलन देखने को मिलता। यही कारण है कि स्त्री-पुरुष दोनों ही वर्ग में उनके पाठक बराबर संख्या में मौजूद हैं।

हम हशमत, जिंदगीनामा, मित्रो मरजानी, ऎ लड़की,  उनके रचना संसार के अनमोल मोती है, जिनसे पाठकों को जरूर हमख्याल होना चाहिए। कृष्णा सोबती को हिंदी साहित्य के दुनिया में बेड़ियों को तोड़ने वाली लेखिका कहा जाए, तो बिल्कुल गलत नहीं होगा।

अमृता प्रीतम (31 अगस्त 1919 – 31 अक्टूबर 2005)

एक खुदमुख्तार मुल्क और  अपनी मिट्टी से अलग होकर हिंदुस्तान को अपना हमवतन बनाने वाली लेखिकाओं में अमृता प्रीतम साहित्यकार में शुमार है, जिन्होंने अपने कविताओं-उपन्यासों के अभिव्यक्तियों से हिंदुस्तान-पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदी, उर्दू और पंजाबी भाषा-भाषी के मध्यवर्ग को काफी प्रभावित किया।

अमृता अपने कलम के अभिव्यक्तियों के साथ-साथ जीवन के उतार-चढ़ाव और जिस ख्याली से उन्होंने जीवन को जीया, लोगों के बीच मशहूर रहीं।

पिंजर, रसीदी टिकट के साथ साथ उनकी कमोबेश पचास के आस पास उपन्यास और कुछ कविता संग्रह भी लिखे। मध्यवर्गीय महिलाओं के सामाजिक द्व्दों को जिस तरह अपने चरित्र में अमृता प्रीतम ने पिरोया, उसका कोई सानी नहीं था।

उनकी रचनाएं जहां एक तरफ स्त्री के आजाद ख्याली की खुदमुख्तारी करतीं तो दूसरी तरह जिस सामाजिक बेड़ियों में बंधे होने के कारण वह चाहकर भी मुक्त नहीं हो पा रही है उसका यथार्थपरक मूल्यांकन करती।

मन्नू भंडारी (3 अप्रैल 1929)

पिता सुख सम्पतराय से परंपरा में लेखन संस्कार पाई मन्नू भंडारी हिंदी साहित्य में 60 के दशक में अपनी पहली कहानी एक प्लेट सैलाब से दस्तक दिया।

उनकी लेखन क्षमता में महानगरीय-शहरी मध्यवर्गीय जीवन के जद्दोजहद और कशमकश का जो वृतांत अभिव्यक्त होता था, वह उनको अपने समकक्ष लेखिकाओं से एक अलग स्थान पर ला खड़ा करता। खासकर, उस पाठक वर्गों को जो इन जद्दोजहद और कशमकश के दव्द्दों में घिरा हुआ, अपने जीवन को बेहतर करने में रोज बसों, लोकट ट्रेनों में धक्के खा रहा था, अपनी एड़ियाँ रगड़ रहा था।

उस दौर में चर्चित पत्रिका धर्मयुग में प्रकाशित उनका उपन्यास आपका बंटी बहुत अधिक पसंद किया गया।

मैं हार गई, यह सच है, एक इंच मुस्कान, महाभोज, अकेली, आखों देखा झूठ उनकी प्रमुख  रचनाएं है। यह सच है पर रजनीगंधा फिल्म भी बनी जिसको सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी मिला। उन्होंन कुछ पटकथाएं और नाटक भी लिखे जो काफी पसंद की गई।

शिवानी (17 अक्टूबर 1923- 21 मार्च 2003)

अपने जन्म से मात्र बारह साल के उम्र् से ही हिंदी के साहित्यक दुनिया में हिंदी, संस्कृत, गुजराती, बंगाली, उर्दू और अंग्रेजी भाषा के शब्दों के साथ चहल-कदमी करती प्रारंभ कर दिया था शिवानी ने।

गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के छत्रछाया में शिक्षा प्राप्त उन्होंने भारत के लोक सस्कृति के रंग देखने का जो हुनर पाया, वह अपने आप में क्लासिक कहा जाता है। उनके कहानी और उपन्यासों में प्रकृत्ति का जो विश्लेषण मिलता है, वह उन्हें विश्व के चोटी के लेखकों के समकक्ष खड़ा कर देता है।

मजबूत और सशक्त नारी प्रधान पात्रों के साथ उन्होंने कृष्णकली, भैरवी, विषकन्या, चौदह फेरे, कालिंदी, स्वयं सिद्धा, श्मशान चंपा जैसे बहुचर्चित उपन्यास लिखे। उनकी कहानी संग्रह, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत भी उल्लेखनीय है।

हिंदी के आलोचकों ने शिवानी के रचना संसार को अधिक महत्व नहीं दिया पर पाठकों के बीच शिवानी हमेशा बेहतरीन हिंदी लेखिका के रूप में याद रखी जाती है।

इन सभी महिला लेखिकाओं के साथ सबसे अधिक गौर करने वाली बात यह थी कि यह बस महिलाएं थी, परंतु इनका महिला होना इनके लेखन में बाधा बनकर नहीं आया न ही सहायक बन कर। स्पष्ट रूप से इन महिला रचनाकारों ने लैंगिक दुराभाव से लेखन नहीं किया लेकिन यह सच है कि लैंगिक समानता की चाह इनके लेखन में जरूरी दिखती है।

मूल चित्र : Wikipedia of authors 

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