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रावण के साथ पुरानी रस्मों का दहन करता सिंदूर खेला!

सिंदूर खेला, स्त्री शक्ति का उत्सव है, इसलिए इसको सिर्फ विवाहित महिलाओं तक सीमित रखना, वहां के समाज से उचित नहीं समझा।

सिंदूर खेला, स्त्री शक्ति का उत्सव है, इसलिए इसको सिर्फ विवाहित महिलाओं तक सीमित रखना, वहां के समाज से उचित नहीं समझा।

भारत एक सांस्कृतिक उत्सवों का देश है यह कहना कहीं से भी गलत नहीं होगा। भारत की यही संस्कृति भारतीय सभ्यता पर भी अपना छाप छोड़ती है। इसकी व्याख्या राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी किताब “संस्कृति के चार अध्याय”  में की है। वो कहते हैं कि भारतीय संस्कृति में सबसे खास बात यही है कि यह वहां के लोगों पर निरंतर प्रभाव डालती है।

सांस्कृति उत्सव का पूरे संस्कृति पर प्रभाव का बेजोड़ उदाहरण है पश्चिम बंगाल का दूर्गा पूजा। दुर्गापूजा का सांस्कृतिक उत्सव पूरे जोश-उत्साह से मानाया तो पूरे देश में जाता है। पर पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूर्जा का एक अलग ही रंग है। उन रंगों में सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र है सिंदुर खेला।

क्या है सिंदुर खेला? (Sindoor Khela Kya hai)

पश्चिम बंगाल में दूर्गा पूर्जा केवल धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सव नहीं है। इस सांस्कृति उत्सव के सामाजिक मूल्य का प्रभाव वहां के सामाजिक जीवन पर भी देखने को मिलता है। वह सांस्कृतिक मूल्य है देवी के रूप में महिलाओं को सम्मान देने के साथ-साथ सामाजिक जीवन में समानता का व्यवहार करने का, जिसमें सामाजिक संवेदनशीलता के साथ-साथ एक-दूसरे के स्वतंत्रता का सम्मान का भाव भी दिखता है।

जाहिर सी बात है इस मूल्यों के परिवेश में महिलाओं की सामाजिक चेतना भी प्रखर होगी ही जो दिखती भी है। महिलाओं के लिए सम्मानजनक व्यवहार समाज में बनाने में सिंदूर खेला के सांस्कृतिक उत्सव का विशेष योगदान है।

सिंदूर खेला का सिंदूर, मां दुर्गा के आशीर्वाद और दायित्व का प्रतीक

पश्चिम बंगाल में नौ दिन की पूर्जा-अर्चना के बाद जब मां दुर्गा की विदाई होती है तब महिलाएं आपस में “सिंदुर खेला” का उत्सव मनाती है।

सिंदुर को मां का आशीर्वाद मानते हुए, विवाहित महिलाएं एक-दूसरे को सिंदूर, होली के गुलाल के तरह गालों पर लगाती हैं। मान्यता यह है कि विदा के समय इसके माध्यम से मां दुर्गा विवाहित महिलाओं को अपना दायित्व सौप कर जाती है, जिससे वह अपने घर-परिवार और समाज की हिफाज़त कर सके। इस तरह सिंदूर खेला का सिंदूर, मां दुर्गा के आशीर्वाद और दायित्व का प्रतीक है।

इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल के सामाजिक जीवन में कब, कैसे और किन सामाजिक परिस्थितियों में हुई? इसके बारे में कहीं कुछ पढ़ने को नहीं मिलता है। न ही धार्मिक ग्रंथों में इसके बारे में कुछ लिखा मिलता है। जाहिर है सिंदुर खेला लोकजीवन से उठा एक सामाजिक व्यवहार है जिसको पश्चिम बंगाल का पूरा समाज मान्यता देता है, इसका पालन करता है और सास्कृतिक गतिशीलता के साथ पहले पूरे समाज में और अब देश के दूसरे भाग में फैल भी रहा है, सामाजिक समानता और न्याय के संदेश के साथ।

सिंदूर खेला की यह पारंपरिक परिपाटी पूरे बंगाल में अलग-अलग तरीके से मनाई जाती है। बगाल में दूर्गा पूजा दो रूपों में  पारा दूर्गा पूजा और बारिर पूजा में बनाई जाती है। पारा पूजा बड़े-बड़े पंडालों में रोशनी, डिजाइन, थीम और विचारों का भव्य शो है, कम्युनिटी हांल में भी इसको मनाया जाता है। बारिर पूजा, हर घर में होता है, किसी किसी घर के आंगन में भी इसका भव्य आयोजन होता है। सिंदुर खेला का उत्सव पारा पूजा का हिस्सा है।

केवल विवाहित महिलाओं तक सीमित नहीं है, सिंदूर खेला!

सिंदूर खेला, स्त्री शक्ति का उत्सव है, इसलिए इसको सिर्फ विवाहित महिलाओं तक सीमित रखना, वहां के समाज से उचित नहीं समझा। चूंकि हर रूप में स्त्री परिवार और समाज का कल्याण करती है। इसलिए अब सिंदूर खेला विवाहित महिलाओं के साथ-साथ कुवारी कन्याओं, विधवाओं और ट्रांसजेंडरों को भी शामिल कर लिया गया है।

इस तरह बंगाली समाज में दुर्गापूजा वहां के सामाजिक जीवन में सामाजिक न्याय के तरह स्थापित है। वैसे भी दुर्गा शक्ति, न्यान और हर अन्याय के विरुद्ध ना सिर्फ प्रतिकार का प्रतीक है, बल्कि औरत के भीतर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार का भी धधकता लावा है। गौरतलब हो कि बंगाली समाज के राजा राम मोहन राय ने ही सती प्रथा के खिलाफ मुहींम चलाई थी और ईश्वर चंद विद्यासागर ने बाल विवाह के खिलाफ। बाद में, विधवा विवाह को सबसे पहले बंगाली समाज में ही स्वीकार्य करने का साहस दिखाया था।

स्पष्ट है कि दुर्गा जैसी महाशक्ति का इस्तेमाल बंगाली समाज ने केवल आस्था के रूप में नहीं, महिलाओं के विरुद्ध हर अन्याय से लड़ने के परिपेक्ष्य में भी किया है। इसके साथ-साथ बंगाली समाज अपनी सामाजिक चेतना के जरिए नई संस्कृति को रचकर दुर्गा पूजा के उत्सव में सामाजिक समानता की चेतना को लोगों के आम जीवन में उतारने की कोशिश करता है।

महिलाओं के प्रति सम्मान का पर्व है दुर्गा पूजा

बंगाल जैसा प्रयोग महाराष्ट्र के नवजागरण में लोकमान्य तिलक द्वारा किया गया जिसके बाद प्रतिष्ठित गणेशोत्सव का पर्व प्रारंभ हुआ। 20वीं सदी में प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने चित्रकूट में रामायण मेला की स्थापना की।

तिलक और लोहिया भारतीय आधुनिकता के विकास के प्रखर समर्थक थे लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर पारंपरिक भी थे। परंपरा की बात की जाए तो गणेशोत्सव और रामायण मेला, आधुनिकता का दुर्लभ उदाहरण तो हैं मगर वे बंगाल की तरह समाज में सामाजिक चेतना के निर्माण का संदेश नहीं दे पाते हैं। हां, समाज को एक पहचान के आधार पर संगठित ज़रूर करते हैं।

बंगाल में नारी-पूजा की परंपरा प्राचीन समय से प्रचलित है। वहां शक्ति की पूजा करने वाले शाक्त संप्रदाय का काफी असर है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि अन्य किसी भी पूजा के बनिस्पत बंगाली समाज में शक्ति यानि नारी की अहमियत स्थापित करने का बेजोड़ उदाहरण है दुर्गा पूजा।

इसका प्रभाव पूरे बंगाली समाज पर भी है। बंगाली समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति अन्य प्रांतिय समाज से थोड़ी अधिक सशक्त और जागरूक दिखती है। दुर्गा पूजा बंगाली समाज के जनमानस को महिलाओं के प्रति सम्मान के लिए भी ज़िम्मेदार बनाता है।

इमेज सोर्स : Wikipedia/ SoumenNath from Getty Images Signature via Canva Pro

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