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आज मेरा बरसों पुराना सपना पूरा हो गया…

कभी देखा है ऐसा बांग्ला, ऐसी शानोशौकत। दो कौड़ी की औकात नहीं है और चले हैं झूला झूलने। मैंने कहा था आपको मत बुलाइये इन गँवारो को...

कभी देखा है ऐसा बंग्ला, ऐसी शानोशौकत? दो कौड़ी की औकात नहीं है और चले हैं झूला झूलने। मैंने कहा था आपको मत बुलाइये इन गँवारो को…

निर्मला निवास लगभग बन कर तैयार हो चुका था। खूबसूरत सा बंगला जिसका बगीचा समुद्र के सामने पड़ता था जहाँ उगता सूरज एक नई उम्मीद जगाता था तो हर ढलती शाम सुकून के कुछ पल समेटने को कह जाती थी।

“रोहित, इतना सुन्दर बांग्ला बना है हमारा और झूले इतने सस्ते क्यों?”

“अब इस सवाल को ज़वाब मुझसे से ना ही पूछो रिद्धि क्योंकि कुछ सवालों के ज़वाब नहीं होते भी और फिर तुम तो जानती हो अगर मैं कुछ कर रहा हूँ तो जरूर कोई बात होगी।”

“हां रोहित, ये बात तो सही है वर्ना इतनी शानो शौकत वाले बँगले में ऐसा झूला? जरूर कारण कुछ ख़ास ही होगा”, अपनी पत्नी रिद्धि की बात सुन रोहित ने कोई ज़वाब नहीं दिया।

रोहित का जन्म निर्मला जी और अशोक जी के घर हुआ था। किसान पिता के बेटे अशोक अपने ही गाँव के स्कूल में अध्यापक थे। अशोक के बड़े भाई मनोहर पढ़ने में बहुत तेज़ थे। बेटा कुछ बन जाये इस ललक में अशोक जी के पिता ने उनकी पढ़ाई लिखाई में कोई कमी नहीं की ना ही मनोहर ने कभी शिकायत का मौका दिया।

प्रथम प्रयास में ही उनका चयन प्रशासनिक सेवा में होगा गया। गरीब की कुटिया में जैसे उस दिन दिवाली आ गई थी। मनोहर नौकरी के लिये बाहर चला गया और पीछे रह गए अशोक और उनके माता-पिता। बड़े पुत्र के मोह में फसे माता पिता ने कभी अशोक पर ध्यान ही नहीं दिया था लेकिन अपने बड़े भाई को अपना गुरु मान अशोक ने पढ़ाई की और अपने गाँव में शिक्षक नियुक्त हो गया।

समय के साथ दोनों भाई की नौकरी भी लग गई और विवाह भी हो गया। पद प्रतिष्ठा ने अपना असर दिखाया और मनोहर और उसकी पत्नी रीता का स्वभाव ही बदल गया। गांव अब कम ही आना जाना होता और जब भी आते अपने वैभव का प्रदर्शन जरूर करते।

अशोक और निर्मला सेवा भाव में कभी कोई कमी नहीं रखते फिर भी कोई ना कोई कमी मनोहर और रीता गिनवा ही देते। माता-पिता ने समय पे शरीर त्याग दिया। सारे क्रिया क्रम में भाग दौड़ अशोक ने ही किया और सपन्न बड़े भाई ने क्रिया कर्म में गरीब भाई से खर्चे का बराबर हिस्सा भी चतुराई से निकलवा लिया।

अशोक और निर्मला सब देख सुन कर भी चुप रहते बड़े भाई भाभी भी माता-पिता समान ही होते हैं इस बात की घुट्टी बचपन से पीते आये थे।

एक दिन स्कूल से आ अशोक बताने लगे की मनोहर भाई साहब ने बड़ा सा बांग्ला लिया है। आज तार आया था। पूजा में हम तीनों को बुलाया है।

“वाह! शहर जाना होगा वो भी मुंबई।”

ये सोच कर ही तीनों बहुत ख़ुश थे। तरह तरह के अचार, पापड़, बड़िया निर्मला बाँधने लगी। अपने पापा के साथ जा रोहित भी नये जोड़ी कपड़े और जूते ले आया। लेकिन अशोक के लाख कहने पर भी निर्मला ने नई साड़ी नहीं ली। जानती थी टिकट कितने महंगे आयेंगे और फिर भाईसाहब और दीदी के लिये भी तो तोहफ़े लेने थे। अपनी शादी की साड़ियों को ही धूप दिखा अच्छे से तह लगा अटैची में डाल दिया।

रेलगाड़ी में सवार हो ख़ुशी और अति उत्साहित अशोक, निर्मला और रोहित पहुंच गए मनोहर के घर। घर क्या महल था बिलकुल इतना बड़ा और सुन्दर। सामने ही व्यवस्था का जायजा लेते मनोहर दिख गए।

औपचारिकता के बाद जब अशोक घर के अंदर जाने लगा तो मनोहर ने ये कह रोक दिया, “अरे अंदर कहाँ? तुम लोगो के रहने का इंतजाम पीछे क्वाटर में किया है।”

बाद में पता चला कि रीता ने ही सर्वेंट क्वाटर में अशोक और उसके परिवार के रहने का इंतजाम किया था और अपने घर वालों का शानदार बांग्ले में। अचार, पापड़ तक रीता ने ये कह नहीं लिया की हम इतना तेल वाला खाना नहीं खाते।

हर विधि विधान में अशोक और निर्मला मेहमान की तरह पीछे ही खड़े रहते। कभी भी रीता या मनोहर उन्हें शामिल ही नहीं करते।

बहुत दुखी हुई थी निर्मला लेकिन मन का धीरज अभी टूटा नहीं था। मन मजबूत कर हर अपमान बर्दाश्त कर रही थी। ऐसे ही एक दिन सुबह सुबह निर्मला उठ बगीचे के पीछे की तरफ चली गई। समुद्र के किनारे बड़े से पेड़ पे झूले लगे थे। समुद्र से आती ठंडी हवाएं और सुबह का समय निर्मला सब कुछ भूल झूले पे बैठ गुनगुना पड़ी।

“ये क्या तरीका है, निर्मला तुम्हें शर्म नहीं आयी जो जगह तुम्हारे जेठ जेठानी का है, वहाँ बैठ गई?”

“नहीं दीदी मैं तो बस…”, आगे के शब्द जुबान से निकल ही ना पाये निर्मला के जैसे किसी ने ताला जड़ दिया हो।

“चुप करो कभी देखा है ऐसा बंग्ला ऐसी शानोशौकत। दो कौड़ी की औकात नहीं है और चले हैं झूला झूलने। मैंने कहा था आपको मत बुलाइये इन गँवारो को लेकिन नहीं आपको तो समाज में लोग क्या कहेंगे इसकी चिंता ज्यादा थी।” रीता, क्रोधित हो निर्मला पे बरसे जा रही थी और चुपचाप अपना तिरस्कार सहती और अपमानित होती निर्मला आंसू रोके खड़ी थी। वहीं पास एक पेड़ की आड़ लिये खड़ा नन्हा रोहित सब कुछ अपनी आँखों से देख रहा था।

गंभीर स्वाभाव निर्मला दर्द और अपमान का करवा घूंट पी अशोक या किसी और से बिना इस बात की चर्चा किये वापस गाँव आ गई और सब भुला सामान्य दिनचर्या में लग गई लेकिन अपनी माँ का अपमान रोहित के मन में गहरा बैठ गया था।

अब तो जैसे जिंदगी का एक ही लक्ष्य था खुब मेहनत करना, दिल लगा कर पढ़ना और अपना बंग्ला समुन्दर के किनारे बनवाना। ठीक वैसा ही बगीचा और वैसा ही झूला जिस पर झूलने पे ताईजी ने क्या नहीं सुनाया था उसकी माँ को।

मेहनत और लगन ने साथ दिया। नन्हा रोहित अब आई. पी. एस अफसर रोहित निर्मला सिँह था और उसका बचपन का सपना “निर्मला निवास” भी तैयार हो चुका था। दूर दूर के रिश्तेदारों को  बुलाया गया। ताई जी और ताऊ जी भी आये। पूजा पे निर्मला और अशोक ही बैठे। पूजा खत्म होते ही रोहित ने माइक ले लिया।

“आप सभी का स्वागत है मेरे घर “निर्मला निवास” पर। आज का दिन मेरे लिये बहुत ख़ास है क्योंकि ये दिन मेरी माँ और पापा की जिंदगी में आये यही मेरी जिंदगी का एक मात्र मकसद था और आज ये सच हो गया है। लेकिन जो सबसे ख़ास बात आज शाम की है वो है एक ख़ास सरप्राइज मेरी माँ के लिये।”

“आओ माँ” हाथ पकड़ रोहित अपने माता पिता को ले कर चल पड़ा और पीछे पीछे कौतुहल में मेहमान भी चल पड़े। बँगले के पीछे ही समुन्दर था और वहीं पे एक सुन्दर बगीचा भी था। बगीचे में लगे एक बड़े से पेड़ पे आज बिलकुल वैसा ही रस्सी से बंधा लंबा सा झूला लगा था जिस पर एक दिन निर्मला के बैठने पे रीता ने उसका अपमान किया था।

सामने बीस साल पुराना दृश्य देख निर्मला हक्की बक्की रह गई। चौंक कर रोहित को देखा तो उसके आँखों में आंसू थे।

“माँ, आज से आपको कोई नहीं कहेगा कि आपकी औकात नहीं इस झूले पे बैठने की। आज कोई नहीं कहेगा कि आप इस बँगले और इसके सुख सुविधा की हक़दार नहीं। ये घर आपका है। ये झूला आपका है। आप इन सबकी असली हक़दार हैं। अब घंटो यहाँ बैठ बेफिक्र हो उगता सूरज और ढलती शाम निहारना माँ। क्यों ताई जी ठीक कहा ना मैंने?”

वहाँ खड़े मेहमानों को तो कुछ समझ नहीं आया लेकिन मनोहर और रीता का सर शर्म से झुक गया। उस दिन का एक एक दृश्य उनके आँखो के सामने घूम गया जब बिना किसी गलती के उन्होंने निर्मला का अपमान किया था। शर्म से एक पल भी वो वहाँ रुक ना पाये और मुँह छिपा निकल गए।

निर्मला ने आगे बढ़ अपने रोहित को अंक में भर लिया।

“मेरे लाल वो बात तो मैं कब का भूल चुकी थी और तूने मेरे उस अपमान को याद रखा। मेरी ख़ुशी को ही अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया।” आज ख़ुशी के आंसू निर्मला के आँखों में थे तो रोहित भी भावुक हो उठा था।

फूलों से सजे उस झूले पे अपनी माँ का हाथ पकड़ रोहित ने बैठाया। सारे मेहमान तालियां बजा उठे। ख़ुशी और हंसी के माहौल में अगर कोई सबसे ख़ुश था तो वो रोहित और निर्मला ही थे। आज रोहित के दिल का बोझ हल्का हो गया था अपनी माँ के अपमान का जो असर नन्हे रोहित के दिल पे हुआ था उस अपमान और तिरस्कार का बदला लेने में उसने अपनी पूरी जिंदगी लगा दी थी। आज तसल्ली थी कि बरसों पुराना सपना और उद्देश्य पूरा हो गया था।

इमेज सोर्स : Still from the short film Badi Maa, Anuradha Rajadhyaksha via YouTube

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