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माँजी, आपकी बहू की भी कुछ उम्मीदें हैं अपने ससुराल वालों से…

"ये क्या बहु? इतनी बड़ी घटना हो गई मेरे मायके में तुमने ना इतने दिन मुझे फ़ोन ही कर हाल चाल पूछा और ना मेरे वापस आने पे कुछ समाचार पूछा?"

“ये क्या बहु? इतनी बड़ी घटना हो गई मेरे मायके में तुमने ना इतने दिन मुझे फ़ोन ही कर हाल चाल पूछा और ना मेरे वापस आने पे कुछ समाचार पूछा?”

माँ की अंतिम विदाई की सभी रस्मे अच्छे से निपट चुकी थी और अब नेहा को सुबह की ट्रेन से वापस ससुराल लौट जाना था। मन था कि मायके को छोड़ना ही नहीं चाहता था तो ससुराल के कर्तव्य नेहा को अब और रुकने की इज़ाज़त नहीं दे रहे थे। बाबूजी का चेहरा देख कलेजा मुँह को आ जाता नेहा का, कैसी रीत होती ये कि बेटियां चाह कर भी मायके रुक नहीं पातीं।

आँखों के आंसू पी चलने की तैयारी में लग गई नेहा। माँ, क्या गई घर की रौनक ही चली गई थी।  अच्छी भली तो थी उस दिन। जाने कितने दिनों बाद उस दिन माँ से लम्बी बाते भी हुई थी वरना घर की भाग दौड़ में फुर्सत ही कहाँ मिलती थी माँ से मन भर बाते करने को। और फिर जाने क्या हुआ की सोई तो बस सोई ही रह गई। भागी-भागी आयी नेहा खबर सुन।

माँ, को निर्जीव देह देख ह्रदय हाहाकार कर उठा था। पहले जब कभी नेहा आती तो माँ दरवाजे पर ही खड़ी मिलती।

“लाडो अच्छे से खाना खा बेटा देख कितनी दुबली हो गई है अपना ध्यान कब रखना सीखेगी?” माँ की डांट भी मीठी मिश्री सी लगती।

माँ, तो निर्मोही बन चली गई पीछे बाबूजी रह गए जो कुछ ही दिनों में बूढ़े लगने लगे थे। भाभी अच्छे स्वाभाव की थी तो बाबूजी से बेफिक्र नेहा ने भाई भाभी और बाबूजी से विदा लिया और चल दी अपने ससुराल की ओर। आखिर मायके आये पंद्रह दिन हो चले थे जाने कितनी बार नेहा की सास ने याद दिया था की, “बहु तेरहवीं के बाद रुकना मत। मायके का मोह अच्छा नहीं होता।”

“आ गई बहु? बड़ी जल्दी ससुराल याद आ गया और कुछ दिन रुक जाती। बुढ़ापे में सास काम करती रहे और तुम मायके के आराम लो क्या इसी दिन के लिये बेटे की शादी की थी मैंने?”  दरवाजे पे कदम रखते ही सासु माँ के तीखे बोल नेहा के कानो में पड़े।

कोई नये व्यंग बाण नहीं थे ये नेहा के लिये लेकिन आज? आज के दिन भी माँ जी को मेरा दुःख नहीं दिखा? अपनी बहु के लिये क्या सांत्वना के दो शब्द भी नहीं उनके शब्दोकोष में?

मन ही मन सोचती और अपनी सास की बातों को अनसुना कर नेहा ने सामान कमरे में रखा और लग गई घर के कामों में। रसोई देख ऐसा लग रहा था की पिछले पंद्रह दिनों में किसी ने हाथ भी ना फेरा हो यही हाल बाकी के कमरों का भी था। सारी साफ-सफाई कर नेहा ने खाना बनाया और टेबल सजा दिया। पूरा परिवार साथ बैठ हसीं मज़ाक करते ऐसे खाना खा रहा था जैसे उन्हें नेहा के दु:ख-दर्द से कोई मतलब ही ना हो।

एक तो सफर की थकान और माँ के जाने का गम नेहा बिना कुछ खाये पिए सोने चली गई। मायके का दु:ख और ससुराल वालो का रुखा व्यवहार नेहा को बेहद दुखी कर गया था। भरा पूरा घर था सास-ससुर, दो छोटे देवर नन्द और पति नितिन। किसी को नेहा के दुख से मतलब नहीं था उन्हें तो बस घर के कामों के लिये ही नेहा याद आती थी। दो साल की शादी में सिर्फ रात-दिन काम के अलावा नेहा ने किया ही क्या था? दो मीठे बोल भी सुनने को कान तरस गए थे।

अभी दो दिन ही बीते थे की सुबह-सुबह सासुमाँ के तेज़-तेज़ रोने की आवाज़ आने लगी सब घबरा कर उनके कमरे की ओर भागे। पता चला सासुमाँ की बड़ी भाभी नहीं रही थीं। तुरंत सासुमाँ ससुर जी के साथ अपने मायके निकल गई और पूरे बीस दिनों बाद ही वापस घर आयीं।

“लीजिये माँजी चाय, सफर की थकान उतर जाएगी।”

“ये क्या बहु? इतनी बड़ी घटना हो गई मेरे मायके में तुमने ना इतने दिन मुझे फ़ोन ही कर हाल चाल पूछा और ना मेरे वापस आने पे कुछ समाचार पूछा?” क्रोध से भरी सासुमाँ ने नेहा को कटघरे में खड़ा कर दिया था।

” माँजी, ये तो इस घर दस्तूर है कि किसी के दुख को पूछना नहीं है? मैं तो बस अपने ससुराल के नियम ही निभा रही थी।”

“ये क्या बकवास कर रही हो बहु? ऐसा कौन सा नियम है इस घर का?”

“सही तो कह रही हूँ माँजी, क्यूंकि जब मेरी माँ नहीं रही थी तब पूछा तो आपने भी नहीं था मुझसे ना ही मेरे घर वालो को औपचारिकतावश भी कोई फ़ोन कर हाल समाचार पूछा था। मामीजी तो फिर भी आपकी भाभी थी, तब आपकी इतनी उम्मीदें है मुझसे? मेरी तो माँ चली गई थी हमेशा के लिये और आप सास हो कर भी मेरे दुःख को समझने की कोशिश नहीं की।

माफ़ कीजियेगा माँजी, लेकिन आज सच में मैं जानना चाहती हूँ कि उम्मीदों का बोझ हमेशा बहू के सर ही क्यों होता है? क्या बहू के प्रति ससुराल वालों की कुछ जिम्मेदारी नहीं होती या बहु की उम्मीदों पे उन्हें नहीं खरा  उतरना चाहिए। माँ जी, दुःख तो सबके हिस्से में आते है और अपने हिस्से के दुःख हम खुद झेलते भी है लेकिन हाँ कोई आपके साथ खड़ा रहे आपका गम बाँटने की कोशिश करें तो जरूर वो दुःख कुछ कम हो जाते हैं।”

दो साल पहले आयी बहू ने आज पहली बार मुँह खोला था और आज सासुमाँ के पास कोई जवाब नहीं था।

“चाय ठंडी हो गई होगी मैं दूसरी बना लती हूँ”, नेहा चाय का कप ले चली गई और छोड़ गई अपनी सासुमाँ को अपने द्वारा उठाये सवालों के भंवर में जिसे शायद नेहा को पहले ही उठा लेना चाहिए था।

इमेज सोर्स: Still from short film Sanskari Bahu/JK Chopra films via YouTube

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