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A mother, reader and just started as a blogger
क्यों उसका स्वयं के लिए जीना बन गया अपराध उसका? क्यों उसका सर उठा कर जीना रास ना आया तुम्हे? क़ुसूर क्या बस इतना था कि...
इस पतझड़ तुमने भी,छोड़ दिया बहुत कुछ। छोड़ दिया, सुनना कि तुम्हें क्या पहनना है और क्या नहीं, कैसे बोलना है, किससे बात करना है, कैसे चलना है?
थोड़े ही दिनों में सबको पता चलने वाला है कि राजा जी के बाग में दुशाला ओढ़े खड़ी ये तिन्नी की मां ही लेखिका वंदना हैं।
अब जो तुम चले गए हो तो अब मत लौटना। आने वाला वर्ष अब बस सभी के दुख-दर्द को हरने वाला हो। अब बस सबके चेहरे पर मुस्कान हो मीठी और कुछ नहीं।
मैं जानना चाहती हूं कि हमारे समाज में जहां माता रानी का स्वागत धूम-धाम से होता है, वहां बेटियों का आना मातम क्यों बन जाता है?
और फिर एक स्त्री के सिसकने की आवाज़ आई। ऐसी आवाज़ जो कभी बहुत पहले दर्द होने पर चीखी होगी लेकिन अब शायद उसे शारीरिक दर्द की आदत पड़ गई हो...
माँ ने जो सिखाया था वह वही करने की कोशिश करती लेकिन तब भी हर रोज कोई न कोई कमी निकल ही जाती और पति से भी हर रोज उसकी शिकायत होती।
मुखरित था जो घर-आंगन पायल की रुनझुन से कल, आज सन्नाटे से बन उठा सुर-श्मशान क्यूँ? थम जाती कलम भी आज, ठहर जाती उंगलियां भी आज।
शहरीकरण के इस दौर में शहरी बनने की होड़ में मैंने और सुधांशु ने अपने बच्चों को अपनी भाषा की विरासत ना दे कर एक विदेशी भाषा का आकर्षण दिया था।
ऐ कलम! तेरी स्याही ने, दिए कई उपनाम, अब बस एक ही गुज़ारिश है तुझसे, चाह नहीं किसी उपनाम की मुझे, स्त्री के रूप में देवी नहीं इंसान समझ ले, इतना ही काफी है।
क्यूं मैं कहलाती हूं नारीवादी, जब मैं मांगती हूं आज़ादी, एक आधी सी आबादी की, कहने को तो आधी आबादी है वह, पर आज़ाद तो अब भी नहीं है वह।
एक औरत की विडम्बना यही है, घर में रहते हुए उसका एक - एक पल घर को समर्पित होता है फिर भी बार - बार वह यही सुनती है - ये कुछ नहीं करती, हाउसवाइफ हैं।
मेरा अभिमान है मेरी बेटी, तो क्या हुआ अगर उसने ख़ुद अपना जीवनसाथी चुना है, उसने मुझसे ही तो सीखा है, इंसान की परख करना।
पापा मेरा आपके पास आना, आपका ध्यान रखना, आपके साथ वक्त बिताने से सबको दिक्कत होने लगी थी और इन सब में मेरे पति भी तो शामिल थे।
वैसे दोनो पुरुष हैं, एक के लिए उसका अहम सर्वोपरि है और एक है, जो बस जैसा है वैसा ही रह गया है कोई मिलावट नहीं, सौ प्रतिशत शुद्ध।
अपने शब्दों में, अपनी कहानियों में, साथ ही तो रहे हो हर पल मेरे, एक दिन में कहां,चंद शब्दों में कहां, बयां कर पाएगा कोई, आपका प्यार!
ऐसे ना जाने कितने ही काम हैं जो मैं कर सकता हूं पर मैं नहीं करता और वह इतने दिनों से सब कुछ संभाल रही है, हमारा घर, अपनी नौकरी, मेरी मां, मेरे बच्चों को...
अभी सारी बहारें जैसे थम सी गयीं हैं, मगर एक दिन ऐसा आएगा जब हम सारी बाधाओं से जीत जायेंगे, और खुशियाँ मनाएंगे।
क्षण भर में जो कुछ भी हुआ उसने मुझे व्याकुल कर दिया , मुझे अपनी संवेदनहीनता पर घिन सी आ रही थी और चाहने पर भी मै उस बैगवाले को ढूंढ नही पा रही थी।
किताबों की लिखी हुई पंक्तिओं के ज़रिये कविताएं बोलती हैं, और उन बिन बोले शब्दों की सुनने वाला कविता के सर को समझ लेता है।
शिक्षा अगर वास्तव में ग्रहण की गयी हो तो वह अपना असर ज़रूर दिखाती है, इंसान बुद्धिजीवी बन जाता है और साथ के साथ असमानता को घोर विरोधी बन जाता है।
पतिदेव मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे, मेरी समझदारी पर या मेरी सासू-मां की समझदारी पर, पता नहीं पर मैं मन ही मन अपनी सासू-मां को धन्यवाद दे रही थी।
दुनिया में कोई अगर मुझसे ये पूछे कि दुनिया की सबसे बेशकीमती चीज़ क्या है? तो जवाब यही आएगा, 'मेरी माँ की मुस्कराहट!'
वह नानी, दादी की कहानियां, बचपन की शरारतें, मां - पापा की डांट और फिर से नानी का अपने गोद में लेकर पुचकारना, कुछ अलग सी जिंदगी हुआ करती थी।
ये रिश्ता अगर दो लोगों से बनता है, तो ऐसा क्यों है कि एक ज़्यादा ज़रूरी है और एक नहीं? ऐसा क्यों है कि मेरा अस्तित्व तेरे होने से ही है?
क्या आप समझ पाए हैं अब तक, हर उस बच्चे की तकलीफ़ जिनके मां या पिता ऐसे किसी सेवा में हैं और अपने घर जा पाने में असमर्थ हैं?
सैकड़ों की संख्या में मजदूर पैदल ही दिल्ली और आसपास के इलाकों से चल पड़े थे अपने-अपने गांव की तरफ। सब अपने मन में सोच रहे थे अभी तो बहुत चलना है।
नहीं रंगना पिया तेरे रंग में, ना तेरे प्रेम रंग में, इस होली रंग लूंगी खुद को, बस अपने ही रंग में, रंग लेने दो, मुझे मेरे ही रंग में।
आज वक़्त है कि हर काम हर किसी को करने दें, जो जिस काम में खुश, वही उसका काम। क्यूं ना अब एक कदम बढ़ाएं और लाएं दुनियबराबरीवाली।
कल! देखा मैंने, उस अजीब औरत को! सोचा कभी जाने क्यों इतनी अजीब होती हैं ये औरतें? इतनी सशक्त होते हुए भी, असहाय सी दिखती हैं, ये औरतें।
हां! आज एक फूल खुद के लिए लिया है! हां! मैंने खुद से ही मुहब्बत करना सीख लिया है! हाँ! मैंने जीना सीख लिया है!...और आपने?
सेवानिवृति के दिन जैसे ही हाथों में फूल और गिफ्ट्स के साथ अनंत ऑफिस से निकले सुषमा जी ने गाड़ी घर के बजाय उनके पसंदीदा रेस्तरां की तरफ मोड़ दी।
क्या फोन के ज़रिये की गयी चंद बातें रिश्तों को निभाने के लिए काफी हैं? कुछ नज़दीकी रिश्ते इससे ज़्यादा की उम्मीद रखते हैं! और ये ज़रूरी भी है...
मत देख उन उँगलियों को जो उठती तेरी तरफ हैं, पायल को तू अपना श्रृंगार बना, चूड़ी को तू अपनी आवाज़ बना, न बनने दे बंधन उसे क्योंकि नारी तू बस नारी नहीं।
हर साल दशहरे वाले दिन, बाहर एक रावण का पुतला बनाते हैं उसे जलाते हैं, और खुशियां मनाते हैंकि रावण का अंत हो गया, क्या इतना करना काफी है?
क्यों मेरे हृदय पर अपने वर्चस्व का परचम फैलाना चाहती हो, क्यों तुम्हारी वह मुस्कुराहट मेरा पीछा नहीं छोड़ती, जो मेरी हर दर्द की दवा थी?
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