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Anchal Aashish

A mother, reader and just started as a blogger

Voice of Anchal Aashish

मेरा सर उठा कर जीना डराता है तुम्हें…

क्यों उसका स्वयं के लिए जीना बन गया अपराध उसका? क्यों उसका सर उठा कर जीना रास ना आया तुम्हे? क़ुसूर क्या बस इतना था कि...

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पतझड़ के बाद के नव पल्लव

इस पतझड़ तुमने भी,छोड़ दिया बहुत कुछ। छोड़ दिया, सुनना कि तुम्हें क्या पहनना है और क्या नहीं, कैसे बोलना है, किससे बात करना है, कैसे चलना है?

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हरी थी मन भरी थी राजा जी के बाग में दुशाला ओढ़े खड़ी थी

थोड़े ही दिनों में सबको पता चलने वाला है कि राजा जी के बाग में दुशाला ओढ़े खड़ी ये तिन्नी की मां ही लेखिका वंदना हैं।

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अब तुम कभी मत आना…

अब जो तुम चले गए हो तो अब मत लौटना। आने वाला वर्ष अब बस सभी के दुख-दर्द को हरने वाला हो। अब बस सबके चेहरे पर मुस्कान हो मीठी और कुछ नहीं।

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क्यों मेरा लड़की होना समाज के लिए अभिशाप है?

मैं जानना चाहती हूं कि हमारे समाज में जहां माता रानी का स्वागत धूम-धाम से होता है, वहां बेटियों का आना मातम क्यों बन जाता है?

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और अब बस! अब मैं नहीं कोई और डरेगा…

और फिर एक स्त्री के सिसकने की आवाज़ आई। ऐसी आवाज़ जो कभी बहुत पहले दर्द होने पर चीखी होगी लेकिन अब शायद उसे शारीरिक दर्द की आदत पड़ गई हो...

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मेरी कहानी में जिसे होना चाहिए था, बस वही नहीं था…

माँ ने जो सिखाया था वह वही करने की कोशिश करती लेकिन तब भी हर रोज कोई न कोई कमी निकल ही जाती और पति से भी हर रोज उसकी शिकायत होती।

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आज छाया सन्नाटा सब ओर क्यों…

मुखरित था जो घर-आंगन पायल की रुनझुन से कल, आज सन्नाटे से बन उठा सुर-श्मशान क्यूँ? थम जाती कलम भी आज, ठहर जाती उंगलियां भी आज।

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आपन भोजपुरी – आज मैं बाबूजी की समस्या समझ गई थी

शहरीकरण के इस दौर में शहरी बनने की होड़ में मैंने और सुधांशु ने अपने बच्चों को अपनी भाषा की विरासत ना दे कर एक विदेशी भाषा का आकर्षण दिया था।

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ऐ कलम! अब मत दे कोई उपनाम मुझे!

ऐ कलम! तेरी स्याही ने, दिए कई उपनाम, अब बस एक ही गुज़ारिश है तुझसे, चाह नहीं किसी उपनाम की मुझे, स्त्री के रूप में देवी नहीं इंसान समझ ले, इतना ही काफी है।

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आज़ादी आधी आबादी की

क्यूं मैं कहलाती हूं नारीवादी, जब मैं मांगती हूं आज़ादी, एक आधी सी आबादी की, कहने को तो आधी आबादी है वह, पर आज़ाद तो अब भी नहीं है वह। 

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जी हां! मैं हाउसवाइफ हूं

एक औरत की विडम्बना यही है, घर में रहते हुए उसका एक - एक पल घर को समर्पित होता है फिर भी बार - बार वह यही सुनती है - ये कुछ नहीं करती, हाउसवाइफ हैं।

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मेरा अभिमान है मेरी बेटी, और आपका?

मेरा अभिमान है मेरी बेटी, तो क्या हुआ अगर उसने ख़ुद अपना जीवनसाथी चुना है, उसने मुझसे ही तो सीखा है, इंसान की परख करना।

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शादी के बाद मुझे अपने माता-पिता का ख्याल रखने से रोका क्यों जाता है?

पापा मेरा आपके पास आना, आपका ध्यान रखना, आपके साथ वक्त बिताने से सबको दिक्कत होने लगी थी और इन सब में मेरे पति भी तो शामिल थे।

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क्यूंकि ज़िंदगी में आगे बढ़ने के लिए राहें और भी हैं…

वैसे दोनो पुरुष हैं, एक के लिए उसका अहम सर्वोपरि है और एक है, जो बस जैसा है वैसा ही रह गया है कोई मिलावट नहीं, सौ प्रतिशत शुद्ध।

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मेरे पापा – मेरे हीरो

अपने शब्दों में, अपनी कहानियों में, साथ ही तो रहे हो हर पल मेरे, एक दिन में कहां,चंद शब्दों में कहां, बयां कर पाएगा कोई, आपका प्यार!

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क्या मैं अब भी अपनी ‘बस वाली लड़की’ को वापस पा सकता हूँ?

ऐसे ना जाने कितने ही काम हैं जो मैं कर सकता हूं पर मैं नहीं करता और वह इतने दिनों से सब कुछ संभाल रही है, हमारा घर, अपनी नौकरी, मेरी मां, मेरे बच्चों को...

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जब जीत जाएंगे हम

अभी सारी बहारें जैसे थम सी गयीं हैं, मगर एक दिन ऐसा आएगा जब हम सारी बाधाओं से जीत जायेंगे, और खुशियाँ  मनाएंगे।

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संवेदनहीन

क्षण भर में जो कुछ भी हुआ उसने मुझे व्याकुल कर दिया , मुझे अपनी संवेदनहीनता पर घिन सी आ रही थी और चाहने पर भी मै उस बैगवाले को ढूंढ नही पा रही थी।

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तुम्हारी कविता

किताबों की लिखी हुई पंक्तिओं के ज़रिये कविताएं बोलती हैं, और उन बिन बोले शब्दों की सुनने वाला कविता के सर को समझ लेता है। 

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क्या एक दूध का गिलास समानता और असामनता का प्रतीक हो सकता है?

शिक्षा अगर वास्तव में ग्रहण की गयी हो तो वह अपना असर ज़रूर दिखाती है, इंसान बुद्धिजीवी बन जाता है और साथ के साथ असमानता को घोर विरोधी बन जाता है। 

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सासु-माँ की सीखायी इन दो बातों ने बनायी मेरी ज़िन्दगी आसान

पतिदेव मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे, मेरी समझदारी पर या मेरी सासू-मां की समझदारी पर, पता नहीं पर मैं मन ही मन अपनी सासू-मां को धन्यवाद दे रही थी।

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आज भी मेरी माँ मुस्कुराती बहुत है…

दुनिया में कोई अगर मुझसे ये पूछे कि दुनिया की सबसे बेशकीमती चीज़ क्या है? तो जवाब यही आएगा, 'मेरी माँ की मुस्कराहट!'

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वह नानी, दादी की कहानियां और कुछ भूली बिसरी यादें

वह नानी, दादी की कहानियां, बचपन की शरारतें, मां - पापा की डांट और फिर से नानी का अपने गोद में लेकर पुचकारना, कुछ अलग सी जिंदगी हुआ करती थी।

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यहां इक तू है, तो इक मैं भी तो हूं…

ये रिश्ता अगर दो लोगों से बनता है, तो ऐसा क्यों है कि एक ज़्यादा ज़रूरी है और एक नहीं? ऐसा क्यों है कि मेरा अस्तित्व तेरे होने से ही है? 

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अब तुम भी घर लौट आओ ना माँ!

क्या आप समझ पाए हैं अब तक, हर उस बच्चे की तकलीफ़ जिनके मां या पिता ऐसे किसी सेवा में हैं और अपने घर जा पाने में असमर्थ हैं? 

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लॉकडाउन का पैदल सफ़र गाँव तक…

सैकड़ों की संख्या में मजदूर पैदल ही दिल्ली और आसपास के इलाकों से चल पड़े थे अपने-अपने गांव की तरफ। सब अपने मन में सोच रहे थे अभी तो बहुत चलना है।

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आज रंग लेने दो मुझे मेरे ही रंग में

नहीं रंगना पिया तेरे रंग में, ना तेरे प्रेम रंग में, इस होली रंग लूंगी खुद को, बस अपने ही रंग में, रंग लेने दो, मुझे मेरे ही रंग में।

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क्यूं ना अब एक कदम बढ़ाएं और लाएं दुनियबराबरीवाली

आज वक़्त है कि हर काम हर किसी को करने दें, जो जिस काम में खुश, वही उसका काम। क्यूं ना अब एक कदम बढ़ाएं और लाएं दुनियबराबरीवाली।

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वह अजीब औरत कहीं आप और मैं तो नहीं?

कल! देखा मैंने, उस अजीब औरत को! सोचा कभी जाने क्यों इतनी अजीब होती हैं ये औरतें? इतनी सशक्त होते हुए भी, असहाय सी दिखती हैं, ये औरतें।

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हां! मैंने खुद से मुहब्बत करना सीख लिया है…

हां! आज एक फूल खुद के लिए लिया है! हां! मैंने खुद से ही मुहब्बत करना सीख लिया है! हाँ! मैंने जीना सीख लिया है!...और आपने? 

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सेवानवृत्ति नौकरी से लें ज़िंदगी से नहीं

सेवानिवृति के दिन जैसे ही हाथों में फूल और गिफ्ट्स के साथ अनंत ऑफिस से निकले सुषमा जी ने गाड़ी घर के बजाय उनके पसंदीदा रेस्तरां की तरफ मोड़ दी।

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ये रिश्ते – सिर्फ बातें ही नहीं, कुछ मुलाकातें भी ज़रूरी हैं

क्या फोन के ज़रिये की गयी चंद बातें रिश्तों को निभाने के लिए काफी हैं? कुछ नज़दीकी रिश्ते इससे ज़्यादा की उम्मीद रखते हैं! और ये ज़रूरी भी है...

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पायल, चुनरी, चूड़ी को तू अब अपनी आवाज़ बना!

मत देख उन उँगलियों को जो उठती तेरी तरफ हैं, पायल को तू अपना श्रृंगार बना, चूड़ी को तू अपनी आवाज़ बना, न बनने दे बंधन उसे क्योंकि नारी तू बस नारी नहीं। 

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दशहरे का रावण तो जला दिया पर क्या सचमुच रावण का अंत कर पाए हैं हम?

हर साल दशहरे वाले दिन, बाहर एक रावण का पुतला बनाते हैं उसे जलाते हैं, और खुशियां मनाते हैंकि रावण का अंत हो गया, क्या इतना करना काफी है?

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कुछ लोग और उनकी यादें हमेशा हमारे साथ रहती हैं, और आखिरी दम तक साथ निभाती हैं!

क्यों मेरे हृदय पर अपने वर्चस्व का परचम फैलाना चाहती हो, क्यों तुम्हारी वह मुस्कुराहट मेरा पीछा नहीं छोड़ती, जो मेरी हर दर्द की दवा थी?

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