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"मेरे विवाह में कन्यादान की रस्म में पिता नहीं बैठे, बाद में उन्होंने कहा कि बेटी कोई सामान या दान की वस्तु नहीं", कहती हैं अंजली शर्मा।
सपने देखा करती हैं कुछ लड़कियाँ, आसमान को बढ़तीं सीध अपनी नज़र लगा, कभी धरा पर धरी समतल, उलझी सुलझी सी कुछ लड़कियाँ।
'जो आज न बढ़ी तो कमज़ोर पड़ जाऊंगी, फिर माँ, दादी की तरह इस कुएं में तड़पती रह जाऊंगी', उस दिन मेरा अहम् जीता या उसका स्वाभिमान, नहीं जानता!
घर में विवाह या उसके विषय में किसी प्रकार का उल्लेख भी नहीं किया जाता। हमेशा ऊँची उड़ान भरने और जीवन में कुछ बनने का ख़्वाब देखती दोनों बेटियां।
,जब कोई लड़का हाथ उठाता है या कहीं हथियार उठाता है, तब उस बच्चे के सूखे आंसू बह जाने को मचलते हैं जब गुलाबी नीले रंगों में, बचपन बांटा जाता है!
कहते रहे जो मुझे किसी की ज़रूरत नहीं, बस दो चार दिन में मिजाज़ बदले से नज़र आने लगते हैं? जब घर की औरतों के सर उठते हैं, तो न जाने क्यों लोग घबराने लगते हैं...
क्यों रहती हूँ मैं बंद सजीले महल भवन में? न रोक सकेगा मुझको अब कोई रूढ़ि, धर्म, समाज, तोड़ दिए सब बंधन पहन साहस का चोला आज...
बचपन के दिन अधिक सुहाने और मनभावने होते हैं, बचपन को जितनी खूबसूरती से जिया जा सकता है जीना चाहिए क्यूंकि बचपन दोबारा नहीं आता।
बैठे-बैठे सोच यूँ ही सोच आती है आज, सड़कों पर दुर्व्यवहार, घर में भेदभाव व्यभिचार, बस बातों के संस्कृति संस्कार, बुरा लगे जो करे प्रतिकार! क्यों?
बचपन बीता सकुचा सिमटा, यौवन आया नई आस लिए, आयी है पार झरोखों के, मन में स्वतंत्र उल्लास लिए नारी की विषम कहानी है।
दूर तक फैले खेत, जंगल, हरियाली के मनोहारी दृश्य, जिन्हें कलाकार अपने चित्रों में उतारते हैं, आँखों के सामने दौड़ते तो मन रोमांच से भर जाता।
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