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तुझ पे तो मैं ऐसे हक़ जताती हूँ, पूछे मुझसे मेरा पता तो तुझे घर बताती हूँ। ऐ कलम, ये दोस्ती तुझसे क्या रंग लाई है, तू ही मेरी पूंजी, मेरी ज़िन्दगी की कमाई है।
बड़े नाज़ों से पाला हमने इसको, हो जाए भूल कभी तो, बेटी समझ के भुला देना, सच कहते हैं आसान नहीं है, किसी को अपने जिगर का टुकड़ा देना...
चूहे भी प्यारे हैं, रहते साथ हमारे है, अपना घर उनका है, तो क्या उनका घर भी अपना है? बातें ये हमें हँसाती हैं, आज सोचते हैं तो आँख भर आती है...
ज़रा पूछो उनसे, जिनके सर पे छाँव नहीं। और अब लौटने को बचा, गाँव नहीं।
बेपरवाह सा बचपन, जो बच्चों से खो रहा है। ये देख के पिता भी, बच्चों सा रो रहा है। ये मजदूर ही है दोस्तों! जो इतना मजबूर हो रहा है!
किस रूप का वर्णन करें यहाँ, ये कहानी भी बड़ी पुरानी है, जिस लब्ज़ को छू दो यहाँ, वहीं से शुरू एक नई कहानी है, कभी झाँझर, कभी पायल, कभी घुंगरू, कभी ग़ज़ल...
कविता का सार्थक सार यही होता है की कविता में सभी रसों का समावेश होता है। समाज के हर आयाम को छूती हुई एक लयबद्ध पक्तिओं की क़तार है।
दोनों ही हैं हिस्सा उसका, फिर क्यों मुजरिम सा खुद को पाई, मेरी बेटी का ना इंतज़ार किसी को, बेटा आए, क्यों है यही अरमान सभी को?
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