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मेरा सवाल एक ही है क्यों मुझे हर रीति रिवाज से बांधा जाता हैं और खासकर माँ बनने के बाद मेरी निज़ी जिंदगी पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया जाता है।
हर गलती का हमेशा जिम्मेदार मुझे ही ठहराया जाता है, दूसरों के लिए छोटा, पर मेरे लिए मेरा आत्मसम्मान, शायद तब सबसे बड़ा हो जाता है।
हालांकि इन सब बातों का हम पर फ़र्क तो पड़ना नहीं चाहिए, पर पड़ता है, जबरदस्त पड़ता है। आदत जो पड़ गई है खुद की छवि को दूसरों के आईने से देखने की।
अगर लगे कि सब बराबर है, तो फिर तो कोई गम ही नहीं, पर गर लगे कि मामला गड़बड़ है तो रास्ता बदलने में भी देर नहीं लगाती हूँ।
कब होता है दिन, कब ढल जाती है शाम,अब इस बात की भी सुध बुध भी ना रही, हमेशा टिप टॉप रहने वाली मैं भी अब महीनों से पार्लर नहीं गई।
इस बड़ी सी दुनिया में, अपनी एक छोटी सी जगह चाहती हूं। जो दे दिल को सुकून और सपनों को दे उड़ान, वो ख़्वाब देखना चाहती हूं।
दूसरे आएंगे, तो मुमक़िन है! कि सिर्फ़ तेरी गलतियाँ ही बताएंगे! घाव पर मरहम लगाने की बात कहकर, जख्मों को ही कुरेद जाएंगे!
ज़िंदगी का तानाबाना किसी की भी समझ से काफी दूर है, मगर इंसान फिर भी जूझता रहता है ज़िन्दगी के मायने को समझने क लिए।
उसने पहले ही सोच लिया था कि वह लोगों के तानों का जवाब अपने हुनर से देगी, अपने काम से देगी, उनसे लड़ कर नहीं और वह लगी रही।
बेटे और बेटियों को आत्मनिर्भर बनाएं और सिखाएं काम काम होता है, क्या लड़की वाले काम, क्या लड़के वाले काम, अब समय बदल रहा है, सोच भी बदलनी चाहिए।
किसी की गलती करने पर उससे बड़ी गलती करना हमारी समझ तो नहीं है, क्या कर रहे हैं हम? क्यूँ डर रहे हैं हम? किससे छिप रहे हैं हम?
दीपिका का मानना है कि प्यार एक अनुभूति है, एक एहसास है, शब्दों में बयां करना पड़ता नहीं इसे, गर बोलते आपके जज़्बात है।
एक नया आशियाँ अब उसने भी बनाया है, मंजिलों की राहों को छोड़ कर, यूँ ही चलते चलते अब इन राहों पर ज़िंदगी जीने के नए बहाने मिल गए हैं।
क्यूँ वो दो दो घर होने के बावजूद किसी एक का भी अभिन्न हिस्सा नहीं है? क्यूँ उसे परिभाषित किया जाता है अलग अलग उपमाओं में?
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