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मैं अपने हर श्रृंगार से बढ़ा सकती हूं, तुम्हारे जीवन की खूबसूरती, पर नहीं चाहती कि तुम्हारे पौरुष से ढक जाए मेरा अस्तित्व।
डरने लगी हूँ अब ये सोच के रुई के फाहे-सा नन्हा मादा शरीर, जब दब जाता होगा तुम्हारे भारी भरकम अहं के तले, तुम्हें कैसी सन्तुष्टि मिलती होगी...
इतिहास गवाह है कि कल से ले कर आज तक, और ना जाने कितने और कल तक, मर्द के लिए औरत बस अपनी जीत का डंका पीटने का एक ज़रिया रही है...
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