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"औरत हूँ, तुम जैसे ही खून हाड़-मांस हूँ। क्यों मेरी पवित्रता का दायित्व, तुम्हारी छोटी सोच पर निर्भर है? अरे हो कौन तुम जिसका जीवन मेरी ही देन है?"
हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई - ये मेरी पहचान क्यों? और, ये पहचान मेरे लिए ज़रूरी क्यों? इस पहचान से, एक इंसान होने के नाते, मेरा क्या फ़ायदा है? इसमें मेरा नहीं, सिर्फ़ और सिर्फ़ सियासत के ठेकेदारों का फ़ायदा है।
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