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मैं इस घर को अपना नहीं समझती हूँ? शिवानी मन ही मन एक निश्चय कर चुकी थी। बस बहुत हुआ, अब वो इस घर की बहु नहीं बेटी बन कर रहेगी...
अमर के लिए चाय, बच्चो के स्कूल टिफिन के लिए, आलू का पराठा, नाश्ते के लिए गरमा गर्म पोहे, बच्चों के लिए सैंडविच, सबके लिए ऑरेंज जूस, और...
विदाई की रस्म शुरू हुई, सारी रस्में निभाते पिया जी के साथ गठबंधन किए, रोते-रुलाते जा बैठी मैं कार में और शुरू हुआ मेरे मायके से ससुराल का वो पहला सफर...
खत्म ना होगी, मुझसे ये कविता...आखिरी बात बता दूं सबको, मैं जब बनी माँ बच्चों की, अचरच में थी मेरी नानी! बोली, हो गई, कब तू इतनी बड़ी?
अनाथालय की सीढ़ियों पर लाल रंग के कपड़े में लिपटी हुई। कौन छोड़ गया? क्यों छोड़ गया? इन प्रश्नों के उत्तर उसे कभी नहीं मिले!
आज अगर पिताजी ने पत्र लिख कर उसे सारी बातों से अवगत नहीं कराया होता, तो वो अपनी मां के सपनों से हमेशा अनजान रहता।
क्या कभी किसी ने, किसी पुरुष से आज तक ये पूछा है, किसका बेटा है वो, किसका पति है? नहीं ना? तो नारी की पहचान पर इतना शोर क्यों?
पारुल और रोहित, दोनों प्यार के पंछी, घर और नौकरी में उलझे बड़ी मुश्किल से अपने लिए वक्त निकाल पाते थे, फिर वक्त की चाल बदली और....
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