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मैं एक ब्लॉगर हूँ, मुझे ब्लॉग्स के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त करना अच्छा लगता है।
आखिर समर और आंचल की तो हालत ही खराब हो गई। जब सभी बहनें विदा हो गई तब जाकर समर और आंचल की जान में जान आई।
"देखिए माँजी, आप गलत न समझें। मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं है लेकिन वक्त का कोई पता नहीं होता है, तो अपने बुरे वक्त के लिए खुद को तैयार करना गलत थोड़ी ना है।"
मेरी सैलरी से पैसा लेना कभी किसी को बुरा नहीं लगा, पर मेरी मदद करना...! और उसी का नतीजा था कि आज सब लोग एकत्रित हुए थे।
"शर्म आनी चाहिए मां। झगड़े आप करा रही थीं। जीतने के चक्कर में आपने अपना घर तोड़ दिया और फिर भी इल्जाम अपनी बहुओं को दे रही हो?"
जब उन्हें मदद की जरूरत पड़ती है तब वह बच्चों को उनका फर्ज याद दिलातीं, लेकिन जब सुमन काम करती है तो उन्हें बच्चों का मदद कराना रास नहीं आता।
संचिता जब भी किसी बात के लिए पूछती, तो सास का जवाब यही होता कि मेरी बेटी की तो जिंदगी बर्बाद हो रही है और इसे अपनी ही पड़ी है।
कुछ लोग यह भी कहेंगे कि लड़ना चाहिए था, पर एक बात बताइए, बहुत दिन से लड़ ही तो रही थी अपनों से अपने लिए, पर जीत नहीं पा रही थी...
सुधा जी ने कहा, “बहू कहां जा रही हो तुम? सभी की बहुएँ यहां रुकी हुई है और तुम्हें घर जाने की लगी है। अब कल तो बारात ही है, यहीं रुक जाओ।"
"एक बात बताइए मुझे, कहां से लाते हो आप आदर्श बहू का तराजू? और उस तराजू में हमेशा पलड़ा आपकी बहू का ही क्यों हल्का होता है?"
जिन पोते-पोतियों को इतना लाड लड़ाया, वो भी अम्मा से मिलने नहीं आते। और जिससे हमेशा गुस्सा रहे, आज वही बुरे वक्त में उनके साथ खड़े हुए हैं।
“देख लो बेटा, मुझे तो यह सब पसंद नहीं है। अभी से अपनी मनमर्जी चला रही है। बड़ों का तो कोई लिहाज ही नहीं है।”
किसने कहा वंश बेटे चलाते हैं? वंश तो बहू चलाती है, जो अपने गर्भ में एक नये जीवन को संचारित करती है वो भी अपने शरीर की सुधबुध खोकर।
एक औरत जब मां बनती है तो उसमें शारीरिक बदलाव होना बहुत ही नॉर्मल सी बात है और यह कोई शर्म की बात नहीं है
अब यहां कोई नौकर तो लगा नहीं है, जो तुम्हारे लिए रोटी सेक रखेगा। हमने रोटी सेककर खा ली है। तुम अपने लिए रोटी सेक लेना।”
सही कहा तुमने, बहुओं का हक कल भी एहसान था, आज भी एहसान है और ना जाने, आने वाले कल में भी शायद एहसान ही होगा।
विभा ने कई बार दबी जबान से कहने की कोशिश भी की थी कि अब तो आप लोग घर संभाल सकते हो, तो क्यों ना मैं एक-दो दिन के लिए...
मम्मी कह रही थी कि अनन्या उनकी इकलौती बेटी है तो वह कार भी तो देंगे ही अपनी बेटी को। इसी बात को लेकर मेरी और पापा की मम्मी से बहस हो गई।
“अगर जिंदगी मुझे दोबारा मौका दे रही है तो मैं क्यों घर में बैठूँ। मेरी बच्ची को भी घी वाली रोटी खाने का हक है और उसके लिए ऐसी रोटी मैं कमाऊंगी।”
चलते-फिरते मुझे ससुर जी, कभी मेरे देवर, तो कभी मेरे पति याद दिला दिया करते थे कि मैं इस घर में उनकी पसंद नहीं हूँ।
तेरे कारण मेरी दोनों छोटी बेटियों की शादी नहीं हो पाएगी। लोग कहेंगे कि बड़ी बहन तो खुद पीहर आकर बैठी हुई है, पता नहीं छोटी कैसी होगी।
"सुना है आजकल मैं आप लोगों के मनोरंजन का साधन बनी हुई हूं। जहां भी आप लोग इकट्ठे होते हैं, सब लोग मेरे ही बारे में तो बात करते हैं।"
समाज के नाम पर, हे भगवान! कितना ध्यान रखोगे तुम, इतनी परवाह कि हमें आदत नहीं, इतनी परवाह करते रहे तुम, तो हो जाएगी हमारी भी आदत खराब।
पापा हर त्यौहार पर सबके कपड़े और मिठाई नानी के घर से आते हैं। इसका मतलब है कि हमारे पास कपड़े और मिठाई खरीदने के पैसे नहीं है।
याद है जब तुम्हारे जेठ जी की मृत्यु हुयी, लोग मेरे चेहरे को घूर-घूर कर देखते थे कि मैं रो रही हूं या नहीं, मुझे कितना दु:ख हुआ है।
जब से सुना कि अरविंद घर आने वाला है, तब से अनुज ढंग से बात नहीं कर रहा। आखिर मेरे दोस्त के घर आने से क्या समस्या हो सकती है?
सुबह से रात तक पूरे घर में चक्कर घिन्नी की तरह घूम जाती हूँ, सब को गर्म खाना खिला कर, खुद ठंडा खाती हूँ, पर मैं कुछ नहीं करती।
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