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मेरा नाम ममता है और अपनी सभी सामाजिक जिम्मेदारियां, पढ़ाई, नौकरी,शादी और बच्चे पूरी करने के बाद में खुद की तरफ लौटी हूँ। बहुत देर से सही मुझे ये एहसास हुआ की सबसे पहले मेरी स्वयं के प्रति भी कुछ जिम्मेदारी है और इसी जिम्मेदारी को निभाते हुए में पुनः लौटी हूँ अपने पहले प्यार लेखन की तरफ, और और इस दुनिया में लौटकर जो सुकून मिला वो शब्दों से परे है। अच्छा हिंदी साहित्य पढ़ते और लिखते रहना चाहती हूँ और ये भी चाहती हूँ कि हर औरत समझे स्वयं के प्रति अपनी जिम्मेदारी और जीवन के चाहे किसी मोड़ पर ही सही,कुछ पल को ही सही वो लौटे वहां जहाँ उसकी आत्मा बसती हो, जहां उसे सुकून मिलता हो। यकीन मानो जो नज़र आती हूँ , सब धोखा है ये जो शब्दों में बिखरा हुआ है यही मेरा वजूद है ममता पंडित
अपनी जड़ों की तरफ लौटने का वक़्त आ गया है। अब और देर नहीं कर सकते। इस सुंदर प्रकृति को सहेजना है अपने लिए व अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए।
बड़े बड़े इन महलों में बंद, बुलबुलें झटपटाती हैं, क्या किसी के लिए लड़ेंगी, आपबीति नहीं कह पाती हैं, आपबीति नहीं कह पाती हैं...
नहीं थूक पाई, भीड़ भरी बस में उस आदमी पर, जिसके हाथ लगातार उसके आगे खड़ी औरत के जिस्म को छू रहे थे, तब बोलना चाहिए था, कुछ करना चाहिये था...
रसोई से शयनकक्ष तक, घुमाती रही, कर्तव्यों की चाबियां। लगाती रही ताले अपने आदतों, अरमानों पर, प्रगति के पायदानों पर...
वहशी खुले घूम रहे, जब यूं गली गली, हमारे सम्मान की चिता, यहां हर रोज़ जली। कह दो जब तक, नहीं मिलता इंसाफ, कोई चूल्हा नहीं जलेगा।
क्लीन स्लेट फ़िल्मज़ की फ़िल्म बुलबुल एक डरावनी फ़िल्म है, बिल्कुल, लेकिन उस से भी अधिक भयावह है समाज का घिनौना सच आज भी दिखता है।
वसुधैव कुटुम्बकम् यह शब्द कितना मज़बूत लगता है, वास्तव में मनुष्य ने उसको अधिक कमज़ोर बना दिया है, जिसका अंत दुखदायी हो सकता है।
सीरीज़ पाताल लोक के तीन लोकों की महिलाओं की अलग परिस्थियां और संघर्ष हैं, फिर भी ये महिलाएं अपनी शर्तों पर जीवन जीती हैं, बिना किसी ग्लानि के।
एक डर ने उसके दादू को छीन लिया और वह यही सोच रही थी अगर वो डॉक्टर बन भी गयी तब भी डर नामक बीमारी का इलाज कैसे ढूंढ पाएगी?
ऊपर वाले का शुक्रिया अदा कीजिये कि इस मुश्किल समय में आप अपनों के करीब हैं। लेख को पढ़कर आप भी मानेंगे कि हम घर पर हैं और खुशनसीब हैं ।
औरत का पूरा जीवन एक युद्ध ही है, और इसमें रचा है एक चक्रव्यूह, जिसमें धकेलते तो उसे सब हैं, लेकिन बाहर निकलने का रास्ता उसे कोई नहीं बताता।
विराली मोदी कहती हैं कि जीवन की हर लड़ाई आपको अकेले लड़नी होती है, आपको बैसाखी की तरह आसपास सहारे मिल जाते हैं लेकिन फिर भी चलना आपको ही है।
हम में से ज़्यादातर महिलाएं अपनी ही ज़िंदगी किसी और की पसंद के हिसाब से जीना शुरु कर देते हैं और हम उसमें सहजता महसूस करते हैं।
दिलों में तुम अपनी बेताबियाँ लेकर चल रहे हो तो ज़िंदा हो तुम! बीते दशक की सबसे बेहतरीन और यादगार फिल्मों में से एक ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा...
"कितने नादान हो कि जानते भी नहीं कि लांघ कर तुम्हारी सारी लक्ष्मण रेखाओं को...ध्वस्त कर तुम्हारे अहं की लंका, कब से घुल चुका है वो उल्लास इन हवाओं में..."
किसी राजनीतिक विषय पर जब औरतें बात करती हैं तो यही कहा जाता है, "तुम्हें क्या? तुम अपना घर-बार सँभालो और अपने काम से काम रखो।"
जब आप किसी अस्पताल पहुँचते हो तो क्या धर्म देखकर डॉक्टर चुनते हो? उस पल बस आप यही चाहते हो कि डॉक्टर कोई भी हो, बस इलाज ठीक हो जाये।
ये कौम अलग ही मिट्टी की बनी हुई है, इसलिए डर के आगे है, साहस, सहनशीलता, गर्व और आत्मविश्वास के साथ इस डर से लड़ता हुआ इनका व्यक्तित्व।
रोज़ कहीं से एक टूटी गुड़िया चिल्लाती है, मेरे गुनहगार को फाँसी क्यों नहीं दी जाती है? क्या उत्तर देंगे हम इन मासूमों के सवालों का?
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