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मै, एक सामाजिक लड़की हूँ जो पितृसत्ता को चुनौती दे एक ऐसा समाज बनाना चाहती हूँ जिसमे सभी को उनकी क्षमता और योगयता के अनुसार बराबर अवसर दिया जाए और सभी व्यक्तियों को समान रूप से समझा जा सके।
पर नया साल तो हर साल आता हैं, फिर यह क्या नया और पुराना छोड़ जाता हैं। नया साल तो हर साल आता हैं, अमीरों को अमीरी की ओर ले जाता हैं, और गरीबों को उनकी अमीरी में वैसे ही कही नीचे दबा जाता हैं।
हम फिर से उठेंगे, एक समाज की इज्जत की तरह नहीं, एक बराबरी पाने वाले व्यक्ति की तरह, हम, फिर से जीएँगे, एक साधन की तरह नहीं, पर अपने लिए।
वो कहते अब उम्र हो गई, शादी कर लो ! मैं कहती... हर साल फीस भर, पापा की जेब खाली करना, उस जेब को भर, पापा का मुझे गर्व कर देखना भी तो... अभी बाकी है।
एक सवाल मेरे हृदय को बार-बार चुभाता है कि क्यों नहीं, ये समाज उस बहू को समझ पाताजो चाहती परिवार संग अपनी एक पहचान बनाना?
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