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एक गृहणी.. दाल आटे का हिसाब पन्नों पे लिखते लिखते,, मन के भाव शब्दों में समेटती हूँ.. बातें अक्सर खुद से कही हुई सांझा करती हूँ.. मन से पढ़िए जैसा मन से मैं लिखती हूँ.. मेरी लेखनी आपको समर्पित करती हूँ..
स्मृतियों से मगर एहसास जो जुड़ा वो कहाँ मिल पायेगा? हर गृहिणी संजोती है, संवारती है, घर का कोना कोना, कण-कण में बसती है, उसकी आत्मा!
अपराधी हूँ खुद की रख के मौन, सहारे हैं ये अपने यही सोच रहती मौन, मगर अब ये ख़ामोशी चीखती है, सवाल कर के पूछे आखिर मैं हूँ कौन?...
इक रोज स्कूल की किताब में,पढ़ी इस रहस्य की गहराई।महसूस किया यौवन के नए नए रहस्य को।कई बार झेलना भी पड़ता था,कुछ कुछ समस्याओं को।
पानी की धार पकड़ ना आये, पवन बंधे ना कितने डाल के देखे डोरे। बावरा मन बचपन का सोचे सोचे, और भर भर जाए सपनों के पन्ने कोरे।
कच्ची कचनार सी उँगलियों का स्पर्श ऐसा,तितलियों के परों की नाजुक छुवन के जैसा। बिटिया मेरी खूबसूरती कुदरत की जीत लेती है।
लक्ष्मी से सीता, सीता से द्रौपदी का सफर मैंने हर दौर में यहाँ है जिया, टूटी गर तलवार बनूंगी मैं दोधारी, ये प्रण मैंने कर लिया।
इन्हें क्यूँ कहते हैं ये जोड़ कर नहीं रखती घर, ये नहीं रहना चाहती बना कर किसी से, सिर्फ इसलिए क्यूंकि कभी कभार कर देती है जरा सी शिकायत!
कहते हैं अपना सिक्का खोटा तो परखने वाले का दोष नहीं, शर्मिंदा ना समझें खुद को बेटी पा कर, ये बात हर बेटी को समझनी चाहिए...
कभी कदम-कदम रोके, कभी कतर दिए पँख उनके, मासूम के ख्वाब आखिर चुभते हैं आँखों में किनके। नन्हीं-नन्हीं ख्वाहिशें आसमाँ में उड़...
पाँव की झांझर, कमर की करधनी, हाथो की चूड़ी कंगन, कंठ का हार, बिंदी ललाट की, मांग का सिंदूर लाल, लिख दिया गया रमणी का सारा श्रृंगार।
आवर्ती ज़ब बढ़ती गयी दिनों दिन इस खेल की, मैं घबराती, मैं सकुचाती, सोच कर उनसे मेल की, ना हो बचपन किसी का इस काली छाया से दूषित...
ना हम रूठेंगे उनसे, ना वो हमें मनाएंगे। इश्क़ मेरा है यारा, भला वो क्यों निभाएंगे। ना हम जाएंगे पास, ना वो मुझे अपनाएंगे।
कभी इंद्रधनुष सी बैंगनी, कभी सूरज सा पीला रंग, कभी नभ सा आसमानी और कभी डूबते भानु की अरुणिमा के संग। सवाल है, कैसे, क्यों, किसलिए पनप गयी?
कहती कलम किसी जगह पर रुक के गड़ी रह गयी कुछ पल। वहाँ गहरा बिंदु है, पल जो लिखने में पीड़ा करते समय जब किसी अधूरी बात से वही दम तोड़ रहे है।
अधर स्वतंत्र नहीं होते कहने को है तत्पर..बातें रह जाती है छिपी..उंगलियां तो माध्यम मात्र है मेरे अंतर्मन की..शब्द है हृदयलिपि..
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