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रिवाज़ों की दीवारों में, जकड़ी हुई वो, दहलीज़ों की बेड़ियों से, निकल ना पाती है। मिटाकर हसरतें कितनी, वो! घर का सम्मान, कहलाती है।
गलत-सही निर्णय जो आप ही लेती हूं, लोगों को कम ही भाती हूं, मैं आज़ाद ख्यालों सी लड़की, अपनी एक सोच लिये, अपने उसूलों पर चलती हूं, मैं आधुनिक ज़माने की लड़की।
प्रथाओं की बेड़ियों में जकड़ी ज़्यादातर महिलाएं आज भी घर की चार दीवारी में अपनी दुनिया गुज़ार देती हैं, ओर वो इस कैद को भी अभिमान से जी जाया करती हैं, ताउम्र!
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