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मैं एक लेखिका हूँ ।अपने विचारों को प्रस्तुत करती हूँ।
चेहरे पर न रंज न शिकायत क्या करें हम ऐसे ही तो हैं, मन की क्या सुने और कितना सीखें अपने में मस्त हूँ मैं।
देखो सावन ऋतु कहीं बीत न जाएँ, प्रणय मिलाप गीत कहीं रह न जाएँ। यह प्रेयसी तुम्हारी बिरह में बैठी है, कर सोलह श्रृंगार इंतज़ार में बैठी है।
क्या पुरूष समाज सिर्फ झूठा दंभ भरता रहेगा! क्यों एक ही समाज में स्त्री और पुरुषों के लिए नियम अलग अलग हैं?
"विधवा हूँ। समाज क्या कहेगा। तुम्हें भी मुझसे शादी करके क्या मिलेगा? मुझे तो अब शादी के नाम से ही डर लगता है। कितने अरमानों से शादी की थी पर क्या मिला?" सुधा ने बैचेनी से कहा।
नाराज़गी तो पल भर की होती है, नज़दीकियां तो उमर भर की रहती है क्यूंकी ये दूरियाँ ही नज़दीकियां ले आयेंगी।
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