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शादी हो जाये तब पत्नी का ख्याल रखने के नाम पर उसके दिमाग को घर की चार दीवारी में कैद करना और उसकी गलती पर उसे एक "जड़ देना"...
अगर आप शेरनी के नाम पर विद्या बालन को शेरनी जैसा देखना चाहते हैं, तो मत देखिए फिल्म शेरनी, लेकिन कुछ कहानियां सच बयान करती है...
'हम साथ-साथ हैं' सा परिवार जो कि नामुमकिन के ज़रा नीचे है, हमें स्वीकार है किन्तु एक फैमिली के डिस्फंक्शनल किरदार देखने में गुरेज़ है।
फिल्म संदीप और पिंकी फरार में परिणीति पूछती है,"तुम लोग खुश कब होते हो बॉस? तुम देवता लोग। तुम, अंकल, मेरा बॉस तुम लोग खुश कब होते हो?"
द फैमिली मैन सीजन 2 में मनोज वाजपेयी जी की एक्टिंग की कला के बारे में क्या ही बोलेंगे लेकिन आदत से मजबूर मुझे कुछ महिला किरदार याद रह गए।
भारत में सन 2019 में 32033 बलात्कार हुए यानि की एक दिन में 87 से भी कुछ ज़्यादा!फिकरे, जुमले, सीटियाँ, छेड़खानी आम है हिन्दुस्तान में।
सिर्फ किसी खास रिश्ते में मारा थप्पड़ ही घरेलू हिंसा नहीं है। हमारे समाज में हिंसा के स्वरूप कई प्रकार के हैं जिसमें हम और आप सब शामिल हैं।
कुल मिलाकर आज के संदर्भ में सभी अपराधों और समाजिक ढांचे मे होने वाली हलचल की वजह सिर्फ एक लगती है - सोचने व बोलने वाली स्त्री
तब भी जितने मुंह उतनी बातें होती थीं। बिलकुल आज के सोशल मिडिया की तरह लाग लपेट कर बढ़ा-चढ़ा कर कहना। ये तब भी वैसा ही था।
आज भले ही अमृता को मोहब्बत करने वाले बहुतायत में हैं किन्तु क्या उस अमृता को साथ मिला होगा? क्या आज भी हम 'एक थी अमृता' कह कर बहुत कुछ भूल रहे हैं?
संस्कारों का, यूँ कहिए कि एडिटिंग का डर है, वरना शुद्ध हिंदी में कुछ परोसने को जी चाहता उनको, जो 'फेयर' मतलब 'ग्लो' के आगे नहीं सोच पाते।
फिल्म गुलाबो सिताबो में महिलाओं के हिस्से जितना भी है वो जबरदस्त और फिल्म की जान है, ये महिला किरदार आपको अक्ल के मामले में पुरुषों पर भारी दिखेंगे।
घरेलु हिंसा के ये स्वरुप चोट तो देते हैं पर निशान नहीं देते, और ये कभी सबके सामने बोले नहीं जाते क्योंकि यहां मज़लूम ही मुज़रिम करार दिया जाता है।
तकलीफ इस बात की नहीं कि हम अपने आप को सर्वोपरि मानते हैं बल्कि यह मानते मानते हमने अपना वजूद, अपनी इंसानियत, खो बैठे हैं।
बंद दरवाज़ों के पीछे नील-निशान की इतनी अनदेखी कहानियां छुपी हैं कि अगर सामने आ जाएँ तो देव संस्कृति के चोले में सड़ती गलती पितृसत्ता की सोच घृणित कर जाएगी।
शर्मिंदगी और हार का दर्द, बेबसी, घृणा और क्रोध जो भीतर कढ़ कर ज़हर बन गया है, मुझे हर नर में एक गिद्ध नज़र आता है, नारी में मांस का लोथड़ा, बस और कुछ नहीं
औरतों से हर मुकाम पर खरा उतरने की उम्मीद सब रखते हैं, पर इन सब उम्मीदों का ख्याल रखते रखते क्या हम अपनी उम्मीदों का ख्याल रख पाते हैं?
आज सुबह हुई इस खबर से कि उन्नाव की पीड़िता इस दुनिया से चली गयी और जाते-जाते कह गयी, "मैं जीना चाहती हूँ और उन दरिंदो को फांसी से लटकते देखना चाहती हूँ।"
मंदिर, मस्जिद या राज्य की ज़मीन के लिए रातों रात कानून बना सकते हैं, लेकिन बेटी की अस्मत को यूँ ज़ार-ज़ार करने वाले हाथों को काट नहीं सकते!
घरेलु हिंसा एक सच है, और आश्चर्य यह कि हिंसा करने वाला दोषी तक नहीं समझा जाता और सहने वाला शर्मिंदगी में घुलता चला जाता है।
ये सलीका सीखाने का अचूक अस्त्र था, "चार लोग क्या कहेंगे!" वैसे, ये चार एक साथ कभी सामने नहीं आए, किन्तु लाखों लड़कियों की जीवन दशा इनकी वजह से खराब थी।
कई बार ज़िक्र हुआ, कई बार बहस हुई, ढेरों लेख लिखे गए, लेकिन हर घर में कभी ना कभी ये ज़रूर सुनाई दिया है, "ये कुछ नहीं करती!"
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