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मैंने पूछा, “छुटकी, शादी के बाद सिर्फ रोमांस ही नहीं रह जाता है जीवन में, तुम दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी बनता है। सेक्स!”
बातों की लड़ी बस टूटती, लचकती, ठहरती यूं ही चलती रहतीं है, रूठना-मनाना, गुड-मार्निंग, गुड-नाईट लॉग डिस्टेंस को जोड़ती यही तो ठोस कड़ी हैं।
ये स्वयं अपनी कविता में अपने संघर्ष के, व्यथित मन के गीत, कूंची से जीवन की रंग-बेरंग होती तस्वीर, लिखकर, गाकर, उकेरकर, लोगों को स्वयं ही दिखलाएँ?
और वो मटमैले रंग वाला पोस्टकार्ड। कुछ मन की बात लिखते नहीं बनता था। मैं तो डाकिए की नियत पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती, "आपने पढ़ा तो नहीं न?"
बातें हुई, उनकी गहराई से पता चला कि उनकी इच्छाएं, शौक़, परेशानियां कहीं सतह से बहुत नीचे दबी हैं, हम सब ने मिल कर दफ्न कर दिया था उनके मन को।
मुझे याद है उनके आने के पहले लड़कों में भगदड़ सी मच जाती। कुछ बाथरूम में छिपने दौड़ते, कुछ उपर वाली सीट पर सोने का बहाना करते...
लिखना सुकून दे जाता है, इसलिए लिखती हूँ।इसलिए भी लिखती हूँ ताकि पढ़ सकूँ। एक दिन। जब यादें साथ देना छोड़ दें। और तुम रह जाओ, अक्षरशः।
दादी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर अपनी ज़िद और बूते पर बच्चों को पढ़ाया। कम-ज्यादा जैसा भी हो सका, एक अच्छी जिंदगी देने की पूरी कोशिश की।
कामकाजी हो, हर वक्त चलती नहीं क्यों, बड़े शहर और ओहदे पर आकर, बिंदी तजती नहीं क्यों, हाय, तुम्हारी आंखों से लाज का काजल बहता जाए, क्यों।
सच कहूं तो आज उसकी इस बात पर मन में झिझक भी होती है, मुंहफट तो होते थे, मगर दिल का साफ भी तो थें, एक ख़ास दोस्त हम सबके पास होता था।
मैंने बालों को समेट कर रखना शुरू कर दिया। खुली चोटी भी गुथ गई। अकेले में खुद को देख कर इतराती पर दुनिया के सामने हिम्मत नहीं होती।
तुम्हारे साथ भी ऐसी कई घटनाएं होंगी। अगर शर्मिंदगी महसूस हो, झिटक देना। कभी कैंटीन में दोस्तों संग चाय/खाना गिर जाए, रंजिश तज देना।
घरेलु हिंसा, मानसिक शोषण और एक ख़राब शादी, कोई भी चीज़ उन्हें अपने पति की लम्बी उम्र के लिए किसी भी तीज त्यौहार पर व्रत करने से नहीं रोकती।
माँ, आईने के सामने, आज बाल बनाते, तेरी झलक, कुछ उतर आई थी, जवाब सरल था, मेरी हर बातों का, कि बच्चे आ जाते हैं, पहले! बस इतना ही, कह जाती थी!
काले आकाश में चाँदी की भाँति चमकते हुए सितारे और उसपर चाँद का चमचमाता हुआ चेहरा कितना मनभावन लगता है। यह अतिश्योक्तिपूर्ण वातावरण मन को हर लेता है।
मोहब्बत के वादे, सतरंगी ख्वाब और अधिकार की हकीकत, मेरा तिरस्कार, तुम्हारा परिवार, तुम्हारा समाज, तुम्हारी बातें, तुम, तुम बस तुम।
पैसे की चाह और एक गाड़ी आलीशान, इतने की ख्वाहिश की दंभ में चूर, उछाल कर पगड़ी धमकी स्वरूप 'दो या रहने दो' के भेड़ियों पर आज है समाज शर्मसार!
"नाज़-नज़र और रक्षा-कवच, तेरी तरह बस बन जाती माँ" - एक बेटी द्वारा अपनी माँ को समर्पित, जिसकी समता वह ख़ुद माँ बनने के बाद ही समझ पाई।
"जब सीख लिया तेरी सीख सेतू उड़ चला पंख तना पसार, झांका तो होता एक बार ही अरमानों की उठी थी बयार"- समय बड़ा बलवान है परंतु किसी के लिए नही रुकता।
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