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जो होगा हुनर तो जीतूंगी हर बाज़ी मैं, क्यूंकि इस भीड़ भरी दुनिया में, अपनी एक अलग पहचान बनाने को, मैं अकेली ही काफी हूं।
शहरी जीवन का वातावरण आज कल बहुत प्रदूषित होता जा रहा है। ऐसे में दम घुटने लगता है और प्राकृतिक की दशा छिन्न भिन्न हो रही है।
'होम-मेकर होने का मेरा सफर' कांटेस्ट की तीन बेहतरीन कहानियों की श्रृंखला में आज हम, आप सब के साथ, शुभा पाठक जी को बधाई देते हुए उनका अभिनंदन करते हैं और जानते हैं उनके इस सफर के बारे में।
हर सवेरा लाता है एक नई उम्मीद, ज़रूरत है तू बस नज़रिया बदल, जो नहीं मिला वो बेशक कम था, कुछ और सुनहरा लिखा है, शायद, भरोसा खुदा पर कभी कम ना कर।
हां उड़ना है इसे, तो क्यों परेशानी है? दे दो बस मुट्ठी भर आसमां, क्या उस पर भी सिर्फ तुम्हारी ही जागीर है? ना समझो कि ये बस एक शरीर है!
कितनी रातें दर्द से भरी, कितने दिन वेदना से घिरे, सब नोच गए वो वहशी सरफिरे। क्या उसकी मुस्कुराहट ही थी उसका पाप? या उसका यूं स्वछंद घूमना ना आया उनको रास?
क्यों आज भी हो टोकते, आगे बढ़ने से हो रोकते, धिक्कारते हो घर में तुम, फिर मूर्ति में पूजते, पहुँच गई शिखर पे मैं, फतेह करी अपनी ध्वजा, मैं नभ भी चीर जाऊँगी।
जब आज भी वर्षा ना हुई, तो दूधिया का बालमन भर आया, उसकी नज़रें अपने बापू को ही ढूंढ़ रहीं थीं कि उसने देखा की वो घर से दूर खेत की ओर रस्सी लेकर जा रहे हैं।
हरदम तलाशे गैर में रहते हैं सभी, डरते हैं कहीं खुद से मुलाकात ना हो जाए, ये रिश्ते तुम्हारे मेरे, देते हैं सुकून बहुत, पुराने खुद की याद मुझे दिला जाएं।
ना हूँ मैं अगर यूँ खिली-खिली तो हाल क्या हो इन दरख्तों का! खुश हूँ मैं ना जानकर सारे जवाब, पूछना चाहती नहीं मैं कोई भी सवाल।
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