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निरंतर लेखन करते हुए स्वयं और दुनिया को समझने में प्रयासरत !
तुमने जब भी कभी सुबह जल्दी उठा देने को कहा, उसने पूरी रात आँखों में काट, हमेशा अलार्म को बजने से पहले ही बंद किया और तुम कहते हो कि...
माँ के मुस्कुराते ही मुस्कुरा उठती हैं सूखे वृक्षों की सभी शाखाएं! माँ की नींद पर सदैव भारी पड़ती है पिता की अनुपस्थिती!
अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में खाट पर पड़ी माँ अपने हिस्से के किस्से सुनाती, किस्सा बनकर ही हमारे जीवन में रह जाती हैं!
न जाने कितनी ही कविताएँ गृहणियों की ऐसी ही सूचियों के ढेर में दफन मसालों और दालों के तोल बताती अपने अस्तित्व से अंजान बेमोल पड़ी सिसक रही हैं।
सुनो, तुम न, गोल बिंदी लगाया करो - बिंदी में बसे प्रेम की उपस्थिति किसी भी रंग, रूप, स्थान और परिस्थिति की मोहताज नहीं होती!
एक सदियों पहले ही मर चुकी थी, एक अचानक से नई उगी थी। एक ने पहन लिया था सन्नाटा, एक आंदोलन चला रही थी...
जब वो कुछ नहीं करती तब वो अपनी माँ को फोन करती है और पूछती है कि वे सारी उमर घर पर खाली बैठी आज तक बोर क्यों नहीं हुई!
पिता की उसी बात ने मेरे पैरों के नीचे मेरे हक की जमीन ठहराई, वरना कैसे मेरे पंख नापते आसमान भर की ऊंचाई! आज यही सोच के आँख भर आई...
हर घर में एक स्त्री होती है और हर स्त्री में एक घर भी होता है! तुम घर से स्त्री को कितनी बेरहमी से निकाल देते हो न? जानते भी हो...
जैसी वो अट्ठारह बरस की थी, सतरंगी-मनमलंगी, आज पचास की उम्र में उसे वैसी लड़कियाँ कतई नहीं भाती, ये कमबख्त उम्र भला इतनी दोगली कैसे हो जाती?
मायके से विदा होते, माँ के गले लग उनकी आँख पोंछते, जब पीठ पर हल्की सी धौल जमा रुखाई से खुद को अलग करती हैं, तब पुरखिन होती हैं बेटियाँ!
चक्रव्यूह में फंसी स्त्रियां, व्यूह के कई चक्कर लगा, पूरे व्यूह को ही, अपनी कनकी उँगली पर उठाकर, आसमान की ओर कुछ यूं उछाल देती हैं...
किसी ने दालान में,किसी ने छत पर ढूंढा और किसी ने बालकनी में। जिसने जहां ढूंढा उसे वो वहीं मिलती रही। हर घर में बसी वो औरतखुद में रोज गुमती रही।
विदा होती हुई बेटियां अपने घर के आँगन की मिट्टी से, अपनी जड़ों को हौले से कुछ यूं उखाड़ती हैं कि उस मिट्टी को भी स्वयं के दरकने का अहसास नहीं हो पाता!
पुरुष का रोना हरबार ढूंढता है मां का आँचल, प्रेमिका का काजल, बहन का कांधा, और अपने तकिए का कोना!
प्रश्न आने वाली पीढ़ियों को खोखली मान्यताओं से आज़ाद कर, वास्तविकता से जुड़ी परंपराओं को बिना उलझाए, संभाल-सहेज रख आगे बढ़ाने का है!
और आँखों ही आँखों में तय कर लेती हैं, अपनी-अपनी भूमिकाएं, नाचने, बजाने, गाने और बात-बेबात पर कहकहे लगाने की!
वे हर नई टूट से पहले जानती हैं, टूटी हुई किरचों से मिले जख्मों की गहराई, और तैयार रखती हैं फाहे, आँसुओं और हौसलों से बने उस जादुई मलहम के...
काश गुलाब वाली सलमा सुल्तान दोबारा अपने उसी संजीदगी भरे लहज़े में न्यूज़ चैनल्स पर आकर खबरें देना शुरू कर दें तो आज खबरें इतनी डरावनी न लगें।
कोई भी प्रदेश हो, सरकारें तो आती जाती रहेंगी, बेटियां भी यदि यूं ही जाती रहीं, तो एक दिन हर मां अपनी बेटी को बंदूक देकर ही घर से बाहर भेजेगी!
अपनी सत्तर साल की माँ को देख कर तुम हरगिज़ नहीं सोच सकते कि तुम्हारी माँ कभी कालेज में टाईट कुर्ती और स्लैक्स पहन कर जाया करती थीं...
किसी भी पूजा अर्चना में अक्षत यानि चावल चढ़ाकर भगवान से प्रार्थना की जाती है कि हमारे सभी कार्यों की पूर्णता चावल की तरह हो।
बचपन में हमारी और सूजी की पहली बार जान-पहचान कंजक जीमने जाने पर प्रसाद के रूप में मिले स्वादिष्ट हलवे के सीधे-साधे रूप में हुई थी।
क्यों एक हिंदुस्तानी स्त्री को मन मार कर भी अपने पति को परमेश्वर मानना होगा, फिर चाहे वो कैसा भी हो, दुगनी-तिगुनी कितनी भी उम्र हो, नासमझ हो, कुछ भी हो?
खिचड़ी की महिमा से जो अनिभिज्ञ रहे उनकी जीवन नैया जब आपसी खिचड़ी सही कैसे बनाएं के मझधार में फंसती है तो फिर उसे भगवान भी पार नहीं लगा सकते!
क्यों तुम उस स्त्री के पास न फटके, जिसने अपने पति को परमेश्वर समझ, अपनी अंतिम वक्त की नीम बेहोशी में भी, दोनों हाथ जोड़कर, आखिरी बार पूजा!
जोमैटो रैस्टोरेंट का, फील एट होम वर्जन है! बर्गर, वड़ा पाव का, एक्ज़ाटिक वर्ज़न है! मैगी, जवे का विदेशी वर्जन है!
बच्चों, यदि किसी सुबह मैं सोती ही रह जाऊं तो मेरे एक दो काम बिना भूले, याद से कर देना। वो क्या है न कि, हम इंसान कई ऐसी अनदेखी, अनजानी जिम्मेदारियों का बँटवारा नहीं कर पाते...
छनते अनाजों, पिसती चटनियों, के बीच खुद में बची रही वो इतनी, कि सबसे आँख बचाकर, अपने सपनों को रसोई में छिपाकर, पकाती रही वो छोटे-छोटे लम्हों की हाँडियों में!
यदि ये कविताओं वाली, प्रेम में डूबी, सभी स्त्रियां, किसी दिन अचानक, एक साथ बाहर निकल आई तो? शोध हो गया तो!
किसी कालेज के फ्रीडम फैस्ट में आज़ादी मांगती, अल्हड़ युवती के गालों पर सजे तिरंगे की टैटू बन उसके दिल में बहते देशभक्ति के झोंके से भी बोलता हूं!
इस रस्साकशी में हम ये भूल जाते हैं कि कहीं न कहीं सभी स्त्रियां मायके और ससुराल के रिश्तों के बाहर एक और रिश्ता साझा करती हैं...
सुना है जब किसी परिवार में पहले से ही उस नाम की बेटी होती है तो बहु का नाम बदलवा दिया जाता है। बेटी का नाम भी तो बदला जा सकता है न?
तीर नहीं जो चूक जाऊं, नीर नहीं जो सूख जाऊं, सृष्टी पर भारी हूं! नारी हूं, न हारी थी, न हारी हूं!
अब कोई नहीं पूछता, मैं क्या बनना चाहती हूं! लेकिन मेरा दिल मचल कर कह रहा है, मैं अब 'कमला भसीन' जैसी, ओह सॉरी, 'जैसा' बनना चाहता हूं!
सच मानिए, पुरुषों को अपनी स्वयं की दैनिक दिनचर्या तक चलाने के लिए स्त्रियों की आवश्यक्ता पड़ती है, तो उनकी सलामती की प्रार्थना करना भी तो बनता है न!
जिन्होंने देखा है अपनी मांओं को, सबसे आखिर में थाली लगाते, वे जानती हैं, चादर के आकार और पैरों को पसारने के बीच,सामंजस्य बैठाना, क्या अहमियत रखता है!
किसी दिन तुम पिंजरे में से केले के लिए, हाथ बढ़ाओ! और कोई बंदर तुम्हें, उसमें छिपाकर पटाखा दे जाए, तो?
तुममें जो प्रेम न महसूस कर सके, उसे जाने दो ! तुम्हारे गम से मिलती हो जिसे खुशी,मुस्कुराने दो!
इससे पहले कि, प्रेम रीत जाए! इसे दिल में उतार कर, बचा लो रिश्ता! कि वक्त बीत रहा है!
थोड़ा अंजुरि भर वक्त भरकर पार्सल कर देना, किसी बादामी लिफाफे में, कि जब तुम व्यस्त रहोतो गुजार लूं मैं कुछ वक्त, तुम्हारे साथ, तुम्हारे बिना!
जिन माँओं ने बेटियों को सीख दी कि, ठहाका भाई का है, तुम मुस्कुराओ! तो याद रखना, हर माँ की हर सीख अच्छी और सच्ची हो, ये ज़रूरी नहीं...
शर्माई, सकुचाई पिया की छुअन को तरसती, अपने पति 'राम' का नाम सुनने मात्र से ही लाज से दोहरी होती मालती इस फिल्म की आत्मा है।
क्या तुमने कभी पूछा कि, "तुमने खाना खाया ?" पूछ कर देखना, फिर उन आँखों में आई नमी को पोंछना!
बचपन में, अक्सर मैं सोचती, मैं आफिस जाऊंगी? या खाना पकाऊगीं? तय किया, आफिस जाऊंगी! तो बस, वहां जाती हूं, लेकिन...कुछ ऐसा भी करती हूँ...
छुट्टियों में बच्चों के आने की खबर पाकर मां बौरा सी जाती है, चटनी, पापड़, मर्तबान में सहेजती अक्सर, धूप-छांव के फेर में पड़कर, कुछ मुरझा सी जाती है...
यकीन मानो, वही लड़कियां, एक दिन नाम कमाकर, दुरुस्त करती हैं समाज की वे सारी अव्यवस्थाएं, जो झेली थीं उन्होंने कभी, चुपचाप रहकर!
सभी प्रेमी-प्रेमिकाओं में, प्रेम भी नहीं हो पाता !
मम्मी के साथ 'जी' लगाकर, पराया क्यों कर लेती हो ! 'मम्मी ' कहा करो !
औरतों की कहानियां एक ऐसी कड़ी है जो सदियों को एक औरत को दूसरे से जोड़े चली आ रही है और इन कहानियों के ज़रिये ही आज हम यहां तक पहुंचे हैं...
बारात निकलेंगी यारों की, बैंड पर नागिन-सपेरा बन लहराऐंगे, जन्मदिन पर धूम मचाकर हैप्पी बर्थडे टू यू गाऐंगें!बस कुछ दिनों की बात है!
आपकी रोज़ाना की शिकायतों का पिटारा और एक महिला की ज़िन्दगी, एक सिक्के के ये दो पहलु बरसों से हर परिवार में दिखते चले आ रहे हैं।
ज़रा सोच कर देखें, उम्र की ये निशानियां किस्मत वालों को ही मिलती हैं वरना यूं न जाने कितने ही लोग इस उम्र तक पहुंच ही नहीं पाते।
चिड़िया बेटी होती हैं, तितली भी, मैना, बत्तख़, परी, कली, गुड़िया, शाख, हरियाली, खुशहाली और फूलों भरी डाली, ये सब बेटियाँ हैं ! लेकिन …. बेटियाँ ये सब होती हैं। मूल चित्र : Unsplash विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के […]
फिल्म ईब आले ऊ उस वर्ग की लाचारी दर्शाती है जो कई सपने लेकर बड़े शहरों में आते हैं और वह शहर उन्हें एक बंदर की तरह नचाता है।
मैं अब पहले की तरह मरती नहीं हूं, जीती हूं मन ही मन, दुनिया की परवाह कर आँसू बहाती नहीं हूं, अब मैं बदल गई हूं...अब मैं बदल गई हूं!
अरी लड़कियों इस में लॉकडाउन में ज़रा ये सब नया सीखने के साथ-साथ अपने घरवालों से कहो कि घर के लड़के भी कुछ नया अब तो सीख ही डालें!
अक्सर कहा जाता है कि मायका माँ के साथ ही, खत्म हो जाता है! सच कहूं तो, ससुराल भी सास के साथ ही खत्म हो जाता है, रह जाती हैं बस यादें
मंजिल चाहे कितनी भी दूर क्यों न हो यदि पैरों में मज़बूती और दिल में हौसलों का दम हो तो फिर चाहे चलने की गति कितनी भी क्यों न हो एक न एक दिन अवश्य ही कठिन से कठिन लगने वाली मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। पापा की पुरानी साइकिल पिछले कई सालों से […]
कुछ ऐसे भी हैं जो जिंदा होना तो चाहते हैं लेकिन तय नहीं कर पा रहे कि जिंदा होकर वापिस उसी दुनिया में खुश रह पाएंगे कि नहीं।
काश कि खतों का वही दौर फिर से लौट आए जो अपने साथ रिश्तों में वही पुराना ठहराव सा भी लौटा लाए और फिर से कोई प्रियतमा खत में फूल रख कर भेजे।
मन ही ईश्वर, मन ही देवता, यह एक कहावत है संसार में मनुष्य की सभी गतिविधियां मन ही निर्धारित करता है।
एकल परिवारों का चलन और रिश्तों से अधिक पैसों को अहमियत देने वाली पीढ़ी जिनके लिए ये बुजुर्ग औरतें एक बोझ से बढ़कर अब कुछ नहीं।
निदा फाजली जी की कविता 'बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां' से प्रेरित आज की इसी पीढ़ी की नज़रों से माँ की ममता का बखान कुछ यूं भी हो सकता है...
खेल खिलाने वाला कोई हिंट भी नहीं देता, पता तब चलता है जब जिंदगी हाथ से है फिसलती !ये खेल है जीवन का जहां , हर किसी को अगले ही पल की खबर नहीं मिलती
माँ हमारी नींद को बचाने के लिए न जाने कितनी ही राते जाग जाग कर काटती है, न जाने कब से उसकी आँखें सोई नहीं हैं...माँ, तुम सोई न थीं!
बचपन, भोलापन, मासूमियत, नादानी इन सारे शब्दों में कितनी पवित्रता झलकती है और बचपन होता ही इतना प्यारा है सबका मन मोह लेता है।
आज जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो महसूस होता है कि ये केवल एक फिल्म कलाकार ही नहीं थे , ये तो जाने अंजाने हमारे जीवन का हिस्सा बनकर साथ चल रहे थे।
सुनो, मेरे लिए जो लक्ष्मण रेखा, खींचते आए हो सदियों से, तुमने शायद पहली दफा, इसे महसूस किया है, अब ज़रा तुम भी तो इसमें जी कर देखो ...
तुम भाग्यशाली हो यदि पिता के ये हाथ तुम्हारे साथ हैं और इन हाथों की लकीरों में छिपे किस्सों को पढ़कर सदा के लिए अपने दिल में सहेज कर रखना।
यह मेरा, एक गृहणी का, एक ईमानदार कबूलनामा है कि जब भी मैं रसोई में जाकर कुछ बनाती हूं, तो यह जरूर सोचती हूं कि ये द लंचबॉक्स में इरफ़ान को पसंद तो आएगा न!
मानव अपनी क्रिया की वजह से प्राकृतिक क साथ क्या क्या खिलवाड़ कर चुका है, इसका अनुमान लगाना नामुमकिन है, मगर कभी पृथ्वी की आपबीती किसी ने महसूस की ?
आज स्कूलों द्वारा बच्चों से जुड़े रहने हेतु उन्हें ऑनलाइन एजुकेशन और होम स्कूलिंग दी जा रही है, तो फिर ये स्कूल जाने के ताम-झाम क्या वाकई इतने ही जरूरी हैं?
ईश्वर द्वारा प्राप्त इस खूबसूरत जिंदगी का तोहफा अनमोल होेने के साथ-साथ अनगिनत रहस्यों से भरा पड़ा है ! जन्म से लेकर मृत्यु तक।
प्यार या प्रेम , कभी भी केवल मन निर्धारित नहीं करता , इसमें आत्मा भी शामिल होती है, ऐसा होने से मन का प्रेम दीर्घायु रहेगा।
प्रेम एक बिल्कुल निश्छल भावना है, हाँ मगर वह प्रेम ही हो क्यूँकि प्रेम तो वह एहसास है जहाँ स्वार्थ का नाम दूर-दूर तक नहीं होता।
जी हां, रिक्शा वाला, वो जो इस ओला, ऊबर वाले डिजिटल युग में भी हमारा बोझ अपने शरीर पर लाद कर गंतव्य तक पहुंचाने की जद्दोजहद में रहता है।
हम कई बार अपने मैं की बात किसी से कह नहीं पाते या फिर उसको लिखकर दे देते हैं या कुछ गए देते हैं। क्योंकि हर गीत एक कहानी कहता है ! और यह कहानी है बंदिनी फिल्म के गीत 'मेरे साजन हैं उस पार ' की !
किसी भी तरह का अन्याय देख कर चुप रहना एक अन्याय ही होता है। आवाज़ उठाना सीखो ताकि लोगों को लगे के आवाज़ दबी नहीं है अभी उसमें जोश है।
तुम अभी तक भी खुद के प्रति अपरिचित बने रहते यदि तुम्हारी प्रेमिका ने आकर तुम्हें अपने आँलिंगन के पाश में न बाँधा होता ! तुम मरते दम तक अंजान रहते खुद से !
आज विश्व में फैली हुई COVID 19 की वजह से जहाँ सब कुछ नकरात्मक हो रहा है,वहाँ कुछ ऐसा भी है जो सकरात्मक हो रहा है।
रिश्तों की भीड़ में कुछ अंजान रिश्ते भी अपनी उपस्थिति का अहसास करा जाते हैं........
इस बार जो बच पाओ तो हर हाल में जिंदा रखना, दिलों में इंसानियत कि हैवान भी, तुम पर नज़र डाले तो शर्मिंदा न हो पाए!
क्या ये आवाज़ आपकी और मेरी है, "नहीं कहती कि मुझे सदा पलकों पर बिठा कर रखो, लेकिन मेरे सम्मान से खेलने वाले को सज़ा देने का हक तो दो न!"
सुना तो होगा आपने कि इश्क़ इंसान को क्या-क्या ख्वाब दिखाता है - सही मायनो में कहें तो इश्क़ इंसान को बदल सा देता है!
उम्र के एक पड़ाव पर पहुंच कर जब हम पीछे पलटकर देखते हैं, तो हमारे अंदर छिपा वही मासूम बच्चा बार बार हमें फिर से बचपन में लौटकर चलने को कहता है।
अब मैं सुहाग देने आने वाली किसी पंडिताइन के इंतजार में नहीं सजती, मैं पार्लर जाती हूं, बसंत थीम वाली किटी पार्टी में होने वाले फैशन शो में भाग लेने को।
मुझे लगता है कि 'वसुधैव कुटुंबकम्', परस्पर भाइचारे और धार्मिक सद्भाव की बातें शायद हम केवल दिखावे के लिए ही किया करते हैं!
22 जनवरी 2020, सुबह 7:00 बजे, चारों दोषियों को फांसी! बस तभी वे आखिरी सांस लेंगे! अगर आज निर्भया हमारे बीच होतीं तो वे क्या ऐसा ही महसूस करतीं?
तो नए साल से मिली इसी ढांढस की बंधी हुई पोटली खोलिए और निकाल लीजिए पिछले बरस के फटे, पुराने, उधड़े और बेरंग सपने और कीजिए उनकी छंटाई, रंगाई!
महानायक अमिताभ बच्चन को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिला, उन्होंने सभी का शुक्रिया अदा किया और यह भी साफ किया कि वह अभी रिटायर नहीं होने जा रहे हैं।
एक और नए साल की दहलीज़ पर खड़े हुए पीछे की ओर मुड़ कर देखें, और अब सोचें कि ऐसा क्या था जो अलग किया और क्या नया करेंगे नए साल में
सुरेखा सीकरी तीसरा नेशनल फिल्म अवार्ड पाने पर कहती हैं कि उनकी सेलिब्रेशन ये है कि वे दिल से खुश हैं और उनकी इस ख़ुशी में उनके प्रशंसक भी शामिल हैं!
सबसे खूबसूरत लड़की, मुस्कुराकर नज़रअंदाज़ करती है उम्र की निशानियों को! सबसे निडर लड़की, पंजा लड़ाती है दुनिया के लांछनों से! क्या ये आप हैं?
'ये दुनिया वाले पूछेंगे' पर ये कम्बख़्त दुनिया वाले भी न, कोई इनसे पूछे भला, ये दूसरों के जीवन में इतनी दिलचस्पी क्यों लेते हैं, कोई और काम नहीं इन्हें?
दशहरा गए, रावण जलाये तो दिन हो गए लेकिन रोज़-रोज़ के रावणों का क्या किया जाए? क्यों ना एक बार ऐसा दशहरा मनाएं कि कोई रावण वापस ना आ सके?
दूसरे पहलू पर गौर करना होगा कि बेटे को तमाम व्यसनों और बुरी सोहबत से अधिक सुरक्षित रख कर हम कितनी ही बेटियों को सुरक्षित रख सकते हैं!
समाज में औरतों की व्यवस्था देख कर आज मेरे मन में एक ही सवाल रह रह कर आता है - कलियुग को ख़त्म करने के लिए क्या हम सबको ख़त्म होना होगा?
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