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विरह वेदना की लड़ियों में अपनी आत्मा की संतुष्टि का मिल पाना मुश्किल है, यह ज़रूरी नहीं कि जिसको हम चाहते हैं, हमको वो मिल जाए...
कभी जब आपने ख़ुद को तन्हा पाया, क्या आपको भी बचपन तब याद आया, बचपन के झगड़ों में बीता, भाई बहन का साथ याद आया, क्या आपको भी बचपन फिर याद आया!
आज समाज चाहे कितना भी आगे बढ़ रहा हो, पर लोगों की सोच में मझे विशेष परिवर्तन देखने को नहीं मिलते। अफ़सोस की बात है कि महिलाएं ही महिलाओं को नहीं बख्शतीं।
विमेंस वेब की लेखिका स्वाति कहती हैं, "मैं चाहती हूँ कि कोई भी उन स्थितयों से न गुज़रे जिनसे हम गुज़र चुके हैं और ज़िंदगी की इस लड़ाई में वो ख़ुद को अकेला न पायें।"
इस लड़ाई को लड़ते-लड़ते न ही वो कमज़ोर पड़ेगी, न ही कभी हार मानेगी बल्कि योद्धा की तरह इन चक्रव्यूहों को भेदकर इस लड़ाई पर जीत हासिल करेगी।
माना ज़िंदगी तेरे इम्तिहान हज़ार हैं पर इन इम्तिहानों में भी ज़िंदगी गुलज़ार है, तू अपने इम्तिहानों का सिलसिला जारी रख, नए हौंसलों के साथ हम भी तैयार हैं।
तुम क्या जानोगे हमको, जितना हमने ख़ुद को जाना है, सूरत से दिखते हैं जो, बस उतना ही पहचाना है? अब सिर्फ नारी! क्यों कहूँ मैं ख़ुद को अबला
टूट गयी जो गुड़िया वक़्त के आघात से, उसको फिर से गढ़कर नयी सी कर रही हूँ, समय को बदलकरसाथ समय के चल रही हूँ, ऐ ज़िंदगी तेरी कहानी मैं ख़ुद ही लिख रही हूँ।
हमसे जन्म लेने वाले, हमको कमज़ोर समझते हैं, हाय कितने नादाँ हैं ये, क्या ख़ाक नारी को समझते हैं। माना के हम नारी हैं पर हिम्मत कभी न हारी है!
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