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गुज़र जाऊं, सारे चाहे-अनचाहे मोड़ से और तब परिभाषित हो जाएगी, जीवन की मेरी परिभाषा।
जब तक इस प्रकार की प्रथा चलती रहेगी, तब तक एक स्त्री कभी भी इस प्रकार के मनौवैज्ञानिक दंश से बाहर नहीं निकल पाएगी।
सुने पड़े आँगन की बगिया महक जाती हैं, तेरे आते ही घर में रौनक सी आ जाती हैं, सुनकर माँ-पापा की इन बातों को, उनसे लिपट जाती हूं।
जेठ की दोपहर में, छांव को तलाशती हूं, जब जिंदगी की ठोकरों में, खुद को संभालती हूं, जब जली रोटी देखती हूं, तब याद आती है मुझे मां।
“मेरा यही संदेश है कि महिलाओं को जितना हो सके पढ़ाएं और सशक्त बनाएं” - सुधा पांडे
हवा में फैलती है एक सुनहरी लहर, एक उजली चादर, सुबह की जमे हुए कुहासे को निगलती। जाड़े के धुएं को समेटती...
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