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कम्युनिटी प्रस्तुत
सखी हाथ बढ़ा देना

नहीं ज़रूरत सीता बनने की,ना अहिल्या सी मूरत बनने की,तूँ तो बन जा दुर्गा काली जिसे देख डर जाए हर बलात्कारी।

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उपेक्षा अस्वीकृति

प्रेम आवेश में, मुक्त परिवेश में, पावनी बढ़े है, पावन प्रदेश में नदी - नारी और प्रकृति की उपेक्षा संबंधी विचार मंथन और परिणाम विनाश।

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एक कदम बदलाव की ओर

प्रीति अपने पढ़ाई करने के बाद अच्छी नौकरी भी करने लगी और आज वो अपने पापा की आर्थिक सहायता करने में पूर्णतः सक्षम हो गयी।

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जिस रोज़ पिता की आ जाए…

पिता की उसी बात ने मेरे पैरों के नीचे मेरे हक की जमीन ठहराई, वरना कैसे मेरे पंख नापते आसमान भर की ऊंचाई! आज यही सोच के आँख भर आई...

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हर घर में एक स्त्री होती है…

हर घर में एक स्त्री होती है और हर स्त्री में एक घर भी होता है! तुम घर से स्त्री को कितनी बेरहमी से निकाल देते हो न? जानते भी हो...

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इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है…

कई बीमारियाँ भी निकलेगी और उन बीमारियों का ईलाज भी होगा। लेकिन इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। ये तो सदीयों से चली आ रही है...

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