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आदिवासी कला केंद्र भोपाल में बोंड चित्रकार स्व. कलावती श्याम के चित्रों की प्रदर्शनी से साबित होता है कि हुनर की कितनी अहमियत है।
सोचो क्या कर पाओगे बराबरी तुम, सुबह से शाम तक मेरे उन न खत्म होने वाले कामों की, मेरी उन छोटी-छोटी दम तोड़ती ख्वाइशों की...
जैसी वो अट्ठारह बरस की थी, सतरंगी-मनमलंगी, आज पचास की उम्र में उसे वैसी लड़कियाँ कतई नहीं भाती, ये कमबख्त उम्र भला इतनी दोगली कैसे हो जाती?
चक्रव्यूह में फंसी स्त्रियां, व्यूह के कई चक्कर लगा, पूरे व्यूह को ही, अपनी कनकी उँगली पर उठाकर, आसमान की ओर कुछ यूं उछाल देती हैं...
जो बोलते थे मुझे कि कितना बोलती है, थोड़ी सी देर, चुप भी हो जा ना। आज वही घर देखो, कितना सुना सुना नज़र आता है ना...
होने लगा है जिस पल से मुझको खुद में तेरे होने का एहसास। मैं खो सी गई। मैं, मैं न रही, बस तू ही मुझमें, बस तू ही ख़ास।
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