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हर घर की मैं मुस्कान हूँ , शान हूँ। मेरे सहनशक्ति व त्यागमयी ममता मेरी ढाल हैं। कमजोर न समझना मेरा अस्तित्व चट्टान की तरह विशाल हैं।
आज दर्पण में खुद को देखते-देखते ना जाने मैं कहाँ खो गयी। चाँद की चाँदनी को देखते-देखते ना जाने मैं कहाँ खो गयी।
पूरी तबीयत के साथ ठूँसे हुए गुटखे को निगलते हुए मैनेजर साहब बोले, "कल मैडम जी इन्वाईटेड हैं। विदेश से आ रही हैं, कल हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में बोलेंगी।"
कबीर वाणी में एक चौपाई है “मैं कहता हूँ आंखन देखी, तू कहता है काग़ज़ की लेखी”। इस चौपाई को सतीश कौशिक ने “काग़ज़” फिल्म का केंद्रीय थीम बनाकर एक कहानी कही है।
पर नया साल तो हर साल आता हैं, फिर यह क्या नया और पुराना छोड़ जाता हैं। नया साल तो हर साल आता हैं, अमीरों को अमीरी की ओर ले जाता हैं, और गरीबों को उनकी अमीरी में वैसे ही कही नीचे दबा जाता हैं।
अगर हम किसी समस्या को सुलझाना चाहते हैं, तो सुनकर ही किसी हल तक पहुँच सकते हैं। सुनना बड़े ही धीरज का काम है ।
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