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लेकिन माँ का प्यार, पिता के दिए शब्दों के ज़ख्म नहीं भर सका। उस दिन के बाद से, ऋषभ अपने पिता मोहन के सामने बहुत कम जाता।
दुनियां का है कैसा ये खेल निराला, कमजोर को सब दबाये, मजबूत के चूमे कदम, दुनियां की ये कैसी अनोखी रीत, है जो बिलकुल बदरंग।
मन मर्ज़ी से, सीधी मांग निकाले, मस्ती में मुक्त, झूमते, उड़ते कुँवारे धुले-धुले और खुले-खुले बाल।
लेकिन राधा ने भी मना कर दिया और वह बेचारी चलते-चलते निढाल होकर , किसी की गाड़ी के आगे आते आते बची।
हमेशा खुद को ही सही समझती, सिद्ध करती। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि उसके अंदर प्रेम का बिरवा नहीं था। बस उसने उसे पोषण से वंचित रखा था, लहलहाने नहीं दिया था।
निखिल का शक निर्मूल नहीं था और एक दिन वही हुआ जिसका उसे अंदेशा था। परन्तु निखिल ने अपनी बुद्धिमत्ता और त्वरित गतिविधियों से रश्मि को बचा लिया।
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