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व्यक्तिगत रूप से मैंने यह महसूस किया है कि कई बार बहुत थकान होने पर भी नींद नहीं आती है तो कई बार थकान नहीं होने पर भी नींद नहीं आती है।
मैं जानना चाहती हूं कि हमारे समाज में जहां माता रानी का स्वागत धूम-धाम से होता है, वहां बेटियों का आना मातम क्यों बन जाता है?
अब नील के निशान नहीं दिखते थे भाभी के बदन पर, दिखती थी तो वही सौम्य मुस्कुराहट जो पाँच साल पहले देखी थी मैंने उनके चेहरे पर...
समाज के नज़रिये को अपनाने का अर्थ था, अपने आत्म सम्मान का बलिदान। जो कि उसे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं था। अब बस और सहन नहीं करना है...
अब बस हमे अपनी बेटियों को इतना मजबूत बनाना चाहिए कि ऐसे लोगों का डट के सामना कर सके और निसंकोच अपने परिवार को बता सके...
कई लड़कियां हैं जो अपने ऊपर हुए अत्याचार पर आवाज नहीं उठाती, समाज क्या कहेगा सोचकर। लेकिन समय को बदलना होगा, अब बस हो चुका है।
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