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मुक्ति

बच्चों, यदि किसी सुबह मैं सोती ही रह जाऊं तो मेरे एक दो काम बिना भूले, याद से कर देना। वो क्या है न कि, हम इंसान कई ऐसी अनदेखी, अनजानी जिम्मेदारियों का बँटवारा नहीं कर पाते...

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एक दिन तो अपने लिए भी जिया जाए…

आज मैं भी कोई बर्तन उछाल देती हूँ, चलो! आज मैं ही हुक्का संभाल लेती हूँ। हफ़्ते का एक दिन तो अपने नाम करूँ, अपनी ख़ुशी से अपने लिए कोई काम करूँ।

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ज़िंदगी से इक लम्हा चुराना चाहती हूं…

कभी सिर्फ अपने लिए भी, दिल में दबे अरमान पूरे करना चाहती हूं। नाते रिश्तेदार गर रूठ भी गए कोई गम नहीं, रूठे ज़मीर को मनाना है, सिर्फ अपने लिए !!

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विदा घर से हुई हूँ, दिल से विदा ना करना बाबुल…

तूने जो सिखाया है उसका मान बढ़ाऊंगी, जो कभी टूटने लगे हिम्मत मेरी, आकर कंधा थपथपा देना, दो बोल हिम्मत के तुम बतला जाना...

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कठघरे में हर बार हम ही खड़े थे…

विश्वास के क़त्ल को हम सह ना सके थे, अपनों से दग़ा खाकर ज़हर का घूँट हम पी रहे थे। इतने मजबूर थे की फिर भी हम जी रहे थे...

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