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अब भी वक्त है समझ जा, समझने के लिए बुद्धि दी है मैंने! प्रकृति की ओर लौट जा, प्रकृति की शक्ति को चुनौती दी है तूने!
मैं घंटों यात्राओं के बाद ढ़ूँढ़ लाऊँगी गुलाब पर तुम उसे बस ना समझ लेना गुलाब, ये गुलाब प्रतीक है मेरे अन कहे समर्पण का और मैंने सजा लिए है कुछ ख़्वाब...
आँखों की नमी को फिर पोंछ लिया है, लबों को आज फिर मुस्कुरा लिया है। छोड़कर सारी चिंताएँ ज़िंदगी को आज फिर गले लगा लिया है।
तेरी चुप्पी कहीं, उनका हौसला न बन जाए! दिखला दो ज़माने को, है हममें भी, उड़ान भरने की कुव्वत! बंदिशों से भरी गुत्थी, आखिर कब, सुलझाएगी तू?
यदि ये कविताओं वाली, प्रेम में डूबी, सभी स्त्रियां, किसी दिन अचानक, एक साथ बाहर निकल आई तो? शोध हो गया तो!
मैंने देखा है स्वतन्त्रता की उम्मीदें जोहते परतन्त्र भारत को, मैं 15 अगस्त हूँ।
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