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खुद्दार हम भी बहुत हैं

ये ज़िद्द है हमारी घर-संसार अपना बचाने की, तभी तो इतना गिड़गिड़ाते हैं, रिश्तों में हम अहंकार लाते नहीं, नहीं तो खुद्दार हम भी बहुत हैं। 

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मेरे घर की तरफ मुड़ती, वो गली

छूटे अपने, छूटा मोहल्ला, छूटे खिलौने, छूटा घरौंदा। याद रह गया तो ये आँगन, और मेरे घर की तरफ मुड़ती, वो गली।

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लकी या अनलकी-क्या नाम दें ऐसे वैचारिक सम्बोधनों को!

सबको साथ लेकर चलने की कोशिश और मानवता, कुछ तो मापदंड होंगे, जो मान भी लिए जाएँ, तो लकी या अनलकी होने की श्रेणी में डालते होंगे, पैसे की बरकत नहीं।

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संस्कार-काश मुझे भी ना मिलते

काश! मुझे भी नहीं मिलती कोई विरासत। काश! मेरे शरीर से न लिपटी होती पिता, पति की इज़्ज़त।

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बुरी माँ-हर माँ को होना चाहिए

मैं अपनी बेटी को अजनबी नहीं बना पाऊँगी, हर दुःख-दर्द में उसका साथ निभाऊँगी, ज़्यादा से ज़्यादा एक बुरी माँ ही तो कहलाऊँगी। 

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नारी हूँ नारी मैं-किस्मत की मारी नहीं

बीता वो पतझड़, मैं बसंत बन खिल आई हूँ, रूबरू रोशनी नई, आज ख़ुद चाँद बन, बादलों को चीर निकल आई हूँ।

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