कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
ये ज़िद्द है हमारी घर-संसार अपना बचाने की, तभी तो इतना गिड़गिड़ाते हैं, रिश्तों में हम अहंकार लाते नहीं, नहीं तो खुद्दार हम भी बहुत हैं।
छूटे अपने, छूटा मोहल्ला, छूटे खिलौने, छूटा घरौंदा। याद रह गया तो ये आँगन, और मेरे घर की तरफ मुड़ती, वो गली।
सबको साथ लेकर चलने की कोशिश और मानवता, कुछ तो मापदंड होंगे, जो मान भी लिए जाएँ, तो लकी या अनलकी होने की श्रेणी में डालते होंगे, पैसे की बरकत नहीं।
काश! मुझे भी नहीं मिलती कोई विरासत। काश! मेरे शरीर से न लिपटी होती पिता, पति की इज़्ज़त।
मैं अपनी बेटी को अजनबी नहीं बना पाऊँगी, हर दुःख-दर्द में उसका साथ निभाऊँगी, ज़्यादा से ज़्यादा एक बुरी माँ ही तो कहलाऊँगी।
बीता वो पतझड़, मैं बसंत बन खिल आई हूँ, रूबरू रोशनी नई, आज ख़ुद चाँद बन, बादलों को चीर निकल आई हूँ।
अपना ईमेल पता दर्ज करें - हर हफ्ते हम आपको दिलचस्प लेख भेजेंगे!
Please enter your email address